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________________ १९० ग्विजयसिंहजीका व्यारख्यान हो रहा था । उन्होंने कहा कि जैनियोंकी जनसंख्या घट रही है। और यह नियम है कि जब किसी चीज़का खर्च तो जारी रहता है पर आमदनीकी कोई सूरत नहीं होती तब उसका एक न एक दिन शेष हो ही जाता है । इस लिए हमें चाहिए कि अजैनोंको जैन बनाकर अपनी संख्याको क्षीण होनेसे रोकें। बस, इतना सुनते ही बहुतसे लोग भड़क उठे ओर हुल्लड मचानेके लिए खड़े हो गये। यह देखकर सेठ हुकुमचन्दजी खड़े होगये और उन्होंने बहुत कुछ समझा बुझाकर बड़ी मुश्किलसे उन्हें शांत किया। सेठजीने कहा कि “ इसमें भड़कनेकी कोई बात नहीं है। प्रत्येक जातिका मनुष्य जैनधर्म धारण कर सकता है। यह आपका सामाजिक या जातीय प्रश्न नहीं है-ये यह नहीं कहते कि जो लोग जैनधर्म धारण करलें उनके साथ तुम रोटी बेटी व्यवहार भी जारी कर दो । फिर इतनी उछल कूद मचानेकी क्या आवश्यकता है। इत्यादि ।” इन दो घटनाओंसे हमारे शिक्षित भाईयोंको जानना चाहिए कि हमारे समाजमें विचारसहिष्णुताकी कितनी कमी है और जब तक लोगोंमें इतना भी धैर्य नहीं है-वे दूसरोंकी बातोंको सुन भी नहीं सकते है तबतक समाजमें किसीभी सुधारको आश्रय मिलनेकी आशा कैसे की जा सकती है ! इस विषयमें मालवा आदि प्रान्त तो बहुत ही बढ़े चढ़े हैं-उनकी रूढ़ियों या संस्कारोंके विरुद्ध एक शब्द भी यदि कोई कह दे तो उनके मिजाजकी गर्माका पारा १०५ डिग्रीपर जा पहँचे। इसका कारण उनकी घोर अज्ञानता है। जब उनके कानोंतक कभी ऐसे शब्द गये ही नहीं, अपनी संकीर्ण परिधिके बाहर भी कुछ है यह जब उन्हें मालूम ही नहीं, तब ऐसा होना स्वाभाविक ही है। इस लिए सबसे पहले हमारा यह कर्तव्य होना चाहिए कि सर्व साधारणमें विचारसहिष्णुता उत्पन्न करें। इसके लिए कुछ नये विचारोंके परन्तु शान्त दूरदर्शी और सदाचारी उपदेशक नियत किये जावें आरै वे जगह जगह घूमकर विचारसहिष्णुताके सिद्धान्त समझावें, नये विचारोंको उत्तमताकें साथ लोगोंके कानोंतक पहुँचावें, देश और समाजकी वर्तमान परिस्थितियोंका ज्ञान करावें । सुधारसम्बन्धी कुछ ट्रेक्ट छपाकर जगह जगह वितरण किये जावें और समाचारपत्रोंमें सुधारसम्बन्धी लेख खूब स्वाधीनताके साथ लिखे जावें। यदि वर्तमान समाचारपत्रोंसे काम न चले-वे यदि अपनी दब्बू दुरंगी और गिरी हुई पालिसीको छोड़ना पसन्द न करें तो एक दो बिलकुल स्वाधीन और शानदार पत्र निकालनेका प्रयत्न किया जाय। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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