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समझा है। बल्कि यों कहिए कि बहुतसे लोगोंको समाजमें काम करने और अपना उद्देश्य फैलानेके लिए आपके पवित्र नामका आश्रय लेना पड़ा है। इससे पाठक समझ सकते हैं कि जैनियोंमें श्रीकुन्दकुन्द कैसे प्रभावशाली महात्मा होचुके हैं। भगवत्कुंदकुंदाचार्यने अपने जीवनकालमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंका प्रणयन किया है । और उनके ग्रंथ, जैनसमाजमें बड़ी ही पूज्यदृष्टि से देखे जाते हैं। समयसार. प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदि ग्रंथ उन्हीं ग्रंथों में से हैं जिनक जैनसमाजमें सर्वत्र प्रचार है। आज इस लेखद्वारा जिस प्रथर्क परीक्षा की जाती है उसके साथ भी श्रीकुंदकंदाचार्यका नाम लगा हुआ है। यद्यपि इस ग्रंथका, समयसारादि ग्रंथोंके समान, जैनियाम सर्वत्र प्रचार नहीं है तो भी यह ग्रंथ जयपुर, बम्बई और महासभाके सरम्बन भंडार आदि अनेक भंडारों में पाया जाता है । कहा जाता है कि जत्र ग्रंथ (श्रावकाचार ) भी उन्हीं भगवत्कुंदकुंदाचार्यका बनाया हुआ है जो श्रीजिनचंद्राचार्य के शिष्य थे। और न सिर्फ कहा ही जाता है बल्कि खुद इस श्रावकाचारकी अनेक संधियों में यह प्रकट किया गया है कि यह ग्रंथ श्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य कुदकुंदम्बामीका बनाया हुआ है। साथ ही ग्रंथके मंगलाचरणमें 'वन्दे जिनविधुं गुरम्' इस पदके द्वारा ग्रंथकर्त्ताने 'जिनचंद्र ' गुरुको नमस्कार करके और भी ज्यादह इस कथनकी रजिस्टरी कर दी है। परन्तु जिस समय इस ग्रंथके साहित्यकी जाँच की जाती है उस समय ग्रंथके शब्दों और अथों परसे कुछ और ही मामला मालूम होता है। श्वेताम्बर
१. कुन्दकुन्दस्वामी जिनचन्द्राचार्यके शिष्य थे और उमास्वामीके गुम कुन्दकुन्द थे, इस बातका अभीतक कोई शुढ प्रमाण नहीं मिला है। केवल एक पावके आधारसे यह बात कही जाती है। -सम्पादक।
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