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यह आक्षेप व्यर्थ है कि "समयसारमें बहुतसी नई बातें घुसेड दी गई
__ इस तरह जितने आक्षेप बनारसीदासजी पर किये गये हैं, उन सबका निराकरण हो जाता है । अब प्रश्न यह है कि उपाध्याय मेघविजयजीने अपने ग्रन्थमें उनपर आक्षेप क्यों किये ? क्या वे सर्वथा निर्मूल हैं ?
नहीं, बनारसीदासजीकी एक समय ऐसी अवस्था अवश्य ही हो गई थी-वे व्यवहारको सर्वथा ही छोड़कर केवल अध्यात्मको पकड़ बैठे थे । इसका उल्लेख उन्होंने अपने अर्धकथानक नामक जीवनचरितमें स्वयं ही किया है । वि० सं० १६८० के लगभग जब उन्होंने अर्थमलजी नामक अध्यात्मप्रेमी सज्जनके कहनेसे नाटक'समयसारका अध्ययन किया तब वे बाह्य क्रियाओंसे बिलकुल ही हाथ धो बैठे । उनके चन्द्रभान, थानमल और उदयकरन नामक मित्रोंकी भी यही दशा हुई । और तो क्या भगवानको चढ़ाया हुआ खानेमें भी इन्होंने कोई दोष न समझा ! आपको ये मुनिराज भी बना लेते थे:
"नगन होहिं चारों जने, फिरहिं कोठरी माहिं ।
कहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नाहिं ।" उनकी इस अवस्थाको देखकरः-- ... “ कहहिं लोग श्रावक अरु जती, बानारसी खोसरामती!" अपनी इस अवस्थाका उन्होंने इन शब्दोंमें परिहास किया है:
“करनीको रस मिट गयो, भयो न आतमस्वाद ।
भई बनारसीकी दसा, जथा ऊँटको पाद ॥" . - उनकी यह दशा वि० सं० १६८० से १६९२ तक रही। मालूम होता है कि उपाध्यायजीने इसी समय अपने ग्रन्थकी रचना की होगी
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