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उत्तमकुल श्रावक संचार, तासु गेह प्रासुक आहार ।
भुंजै दोष छियालिस टाल, सो मुनि बंदी सुरत सँभाल॥११ एक जगह वस्त्रसहित प्रतिमाका निषेध करते हुए लिखा है:
पटभूषन पहरे रहै, प्रतिमा जो कोई । सो गृहस्थ मायामयी, मुनिराज न होई ॥२ जाके तिय संगत नहीं, नहिं वसन न भूषन । सो छवि है सरवग्यकी, निर्मल निर्दूषन ॥३
-बनारसीविलास, पृष्ट २३४ ___ और भी, नाटकसमयसारमें अठारह दोषोंका वर्णन करते हुए केवलीको भूखप्यासरहित बतलाया है, मक्खनको अभक्ष्य बतलाया है और स्थविरकल्प जिनकल्पके वर्णनमें लिखा है-; 'थविरकलपी जिनकलपी दुबिध मुनि, दोऊ बनवासी दोऊ नगन रहत हैं।" ये सब बातें श्वेताम्बर मानतासे, विरुद्ध हैं।
किसी नये या मिश्रित मतके स्थापित करनेको वे बुरा समझते थे, ऐसे पुरुषको उन्होंने स्वयं ही विपरीत मिथ्यादृष्टि कहा है:
ग्रंथ उकत पथ उथपि जो, थापै कुमत सुकीय। सुजस हेत गुरुता गहै, सो विपरीती जीय ॥
-समयसार। - तीसरा आक्षेप यह है कि उन्होंने दिगम्बर पुराणोंकी मानता छोड़ दी थी। परन्तु युक्तिप्रबोधके लेखको छोड़कर इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। विरुद्ध इसके दो चार रचनाओंसे यही सिद्ध होता है कि वे पुराणोंको मानते थे । बनारसीविलासमें 'वेसठ शलाका पुरुषोंकी 'नामावली,' 'नवसेना विधान,' वेदनिर्णय पंचासिका,' आदि कवितायें पुराणोंके अनुसार ही लिखी गई हैं। एक कवितामें जुगलियोंके धर्मका भी वर्णन किया गया है।
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