Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 60
________________ और जैसा कि बनारसीदासजीने स्वयं लिखा है कि उस समय श्रावक और यति लोग मुझे 'खोसरा-मती' कहते थे-उन्हें एक नवीन मतका प्रवर्तक लिख दिया होगा । परन्तु कविवरकी आगे यह दशा नहीं रहीं थी। वि० सं० १६९२ में पं० रूपचन्दजीका आगरेमें आगमन हुआ। उन्होंने इन्हें अध्यात्मके एकान्त रोगमें प्रसित देखकर गोम्मटसाररूप औषधि देना प्रारंभ कर दिया । तब गुणस्थानोंके अनुसार ज्ञान और क्रियाका विधान सुनते ही बनारसीदासजीके हृदयके पट खुल गये । वे कहते हैं:तब बनारसी औरहि भयौ, स्यादवादपरणति परणयो। सुनि सुनि रूपचंदके वैन, बानारसी भयो दिदजैन ॥ हिरदेमैं कछु कालिमा, हुती सरदहन वीच । सोउ मिटी समता भई, रही न ऊँच न नीच ॥ इससे स्पष्ट है कि जिस अवस्थाका वर्णन उपाध्यायजीने किया है। वह * संवत् १६८० से लेकर १६९२ तककी है-परन्तु आगे बनारसीदासजी दृढश्रद्धानी जैन बन गये थे। इस बीचमें कविवरने बहुतसी पद्यरचना की थी। उसका संग्रह भी बनारसीविलासमें किया गया है। यद्यपि उक्त रचना उस समय की है जब वे केवल निश्चयावलंबी थे तो भी उसमें कोई दोष नहीं है। जीवनचरितमें उसके विषयमें कहा है: सोलह सौ वानवै लौं, कियौ नियतरसपान । पै केवीसुरी सब भई, स्यादवाद परमान॥ इससे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि बनारसीदासजीकी रचना सर्वथा निर्दोष और कल्याणकारिणी है; उससे जैनधर्मको या * उपाध्यायजीने बनारसीदासजीके मतकी उत्पत्तिका समय भी यही १६८० बतलाया है। १ नियतरस-निश्चयनय । २ कविता। । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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