Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 35
________________ विचार करनेका अभ्यास पड़ गया। यह शरीर ही 'मैं' नहीं हूँ, यह शरीर केवल मेरे अकलेका ही शरीर नहीं है, वर्तमान ही केवल एक समय नहीं है, भिन्न दिखनेवाले जीवोंमें और मुझमें निश्चयसे कोई भेद नहीं है; इन सब सिद्धान्तोंके स्मरणने मुझे बहुत ही मितव्ययी, साधा और सरल बननेके लिए लाचार कर दिया और जैसे बने तैसे दूसरोंकी उत्क्रान्ति उन्नति या सुखके लिए अपनी सारी शक्तियोंका व्यय करनेकी और तत्पर कर दिया । इससे मेरे कुटुम्बके लोग जो कि ऊपर की श्रेणीपर नहीं चढ़े थे मुझसे बहुत ही चिढ़ गये और असन्तोष प्रगट करने लगे। ___ इस तरह एक ओरसे तो कुटुम्बी जन, जान पहचानवाले, जाति विरादरीके अगुए और धर्मगुरु मेरे विरुद्ध खड़े हो गये और दूसरी ओरमे जैनतत्त्वज्ञानने मेरी आँखोंके सामने जो विशाल ज्ञान और जोखिमदारियाँ उपस्थित की थीं उनके मारे मैं हैरान परेशान होने लगा। वास्तवमें मुझे इसी समय यह मालूम हुआ कि जैन बननेमें कितना कष्ट उठाना पड़ता है। ___ ऊपर बतलाई हुई कठिनाइयों से उन कठिनाइयोंको तो शायद सब ही मान लेंगे जो कुटुम्ब तथा समाजादिकी ओरसे * सामने आती क. जो वास्तविक जैनी है उसकी सृष्टि दूसरे लोगोंकी अपेक्षा बहुत आगे पहुँचता है। उसकी नैतिक पद्धति वर्तमानका नहीं किन्तु भविष्यतका अवलम्बन करती है । उसके लिए वर्तमानका मार्ग यथेष्ट नहीं, कारण वह आज कोई ऐसी वस्तुके प्राप्त करने का प्रयत्न करता है कि जिसे दुनियाके दूसरे लोग शायद कल प्राप्त करें । एक जैन आज ऐसे आचारके चलानेका प्रयत्न करता है जो दुनियाकी समझमें कल उतरेगा और जिसका अंगीकार दुनियाके लिए परसों शक्य होगा। जैनके विचार, दृष्टिबिन्दु. और मार्ग ज्यों ज्यों आधिकाधिक आगे बढ़ते जाते हैं यो त्यों वे और लोगोंके विचारों, सृष्टिबिन्दुओं और मागोंसे भिन्न होते जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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