Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 30
________________ सत्रह वर्षकी उमर तक रही और जब अठारहवें वर्ष में मैं बुद्धिविषयक ग्रन्थोंका स्वतंत्र रूपसे अध्ययन करने लगा तब मेरे मनमें इस प्रकारके विचार उठने लगे कि 'जैन' किसे कहते हैं, और जैन बननेमें विशेष लाभ कौनसा है। - अब मैंने जैनधर्मके आधुनिक ग्रन्थोंका पढ़ना प्रारंभ किया, उनपर मैं तर्कवितर्क करने लगा और जैन साधुओंके तथा विद्वानोंके सहवासमें -रहकर उनके स्वभावका, वर्तावका और आचार विचारोंका अनुभव प्राप्त करने लगा । फल यह हुआ कि जैनजातिमें रहनेसे मुझे विरक्ति हो गई । जैन बने रहनेमें न तो मुझे कुछ लाभ नजर आया और न कोई आनन्द । धीरे धीरे जैनोंके लोकव्यवहारानुसार मन्दिरोंमें जाना, साधु ब्रह्मचारियोंकी सेवा शुश्रूषा करना, मेला प्रतिष्ठाओंमें जाना और पंचायती कामकाजोंमें शामिल होना आदि सब काम मैंने छोड़ दिये। यद्यपि जैनकुलमें जन्म लेनेके कारण लोग मुझसे जैन कहते थे परन्तु -अब मुझे स्वयं आपको 'जैन' कहलानेमें संकोच होने लगा। दिन, महीना और वर्ष बीतने लगे। बावीसवें वर्षमें उच्चश्रेणीकी - अँगरेजी शिक्षाने मेरी बुद्धिको तीव्र बनाई और प्रत्येक विषयकी गहरी जाँच करनेकी ओर मेरी रुचि बढ़ी । इसी समय अनायास ही मुझे जैन फिलासोफीके कई ग्रन्थ प्राप्त हो गये और उनके पढ़नेसे मेरे हृदयमें प्रेरणा उत्पन्न हुई कि जैनधर्मका खास तौरसे मनन और परिशीलन करना चाहिए। नीतिके ग्रन्थ और पाश्चात्य फिलासोफीकी पुस्तकें पढ़ते समय मुझे जो जो शंकायें उत्पन्न होती थीं इन ग्रन्थोंका मनन करनेसे उनका समाधान आप ही आप होने लगा। छद्मस्थ दशासे लेकर सर्वज्ञ केवलीकी दशा तककी बीचकी शृङ्खला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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