Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 29
________________ १५५ का परिवर्तन करके इसका नाम 'कुंदकुंदश्रावकाचार ' रख दिया है'—साथ ही उन्हें अपने भंडारोंके दूसरे ग्रंथोंको भी जाँचना चाहिए और जांचके लिए दूसरे विद्वानोंको देना चाहिए। केवल वे हस्तलिखित भंडारोंमें मौजूद हैं और उनके साथ दिगम्बराचार्योंका नाम लगा हुआ है, इतनेपरसे ही उन्हें दिगम्बर-ऋषि-प्रणीत न समझ लें। उन्हें खूब समझ लेना चाहिए कि जैन समाजमें एक ऐसा युग भी आचुका है जिसमें कषायवश प्राचीन आचार्योंकी कीर्तिको कलंकित करनेका प्रयत्न किया गया है और अब उस कीर्तिको संरक्षित रखना हमारा खास काम है । इत्यलं विशेषु । देवबंद (सहारनपुर)। किसोर रस्तार । ता० १७-२-१४।। जैन-जीवनकी कठिनाइयाँ। मेरा जन्म एक जैनकुलमें हुआ था, इस लिए बचपनमें मैं समझता था कि जिस तरह यूरोपियन, अमेरिकन, जापानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियाँ हैं उसी तरह जैन भी एक जाति है और उसमें मैंने जन्म लिया है । यद्यपि नव वर्षकी उमर तक मुझे इतना ज्ञान नहीं था कि मैं 'जैन' हूँ। परन्तु ज्यों ही मैं दश वर्षका हुआ त्यों ही एक जैन पंडितने मुझे नमोकार मंत्र, पंचमंगल, दो चार विनती आदि रटा दी और तबसे मैंने यह कहना सीख लिया कि 'मैं एक जैन हूँ।' उस समय मैं यह नहीं जानता था कि जैन बननेमें कोई विशेष आनन्द या लाभ है । अर्थात् तब तक मेरे शरीरपर, मनपर और जीवनपर जैनका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। मेरी यह दशा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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