Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 27
________________ १५२ (१०) आठवें उल्लास में जिनेंद्रदेवका स्वरूप वर्णन करते हुए अठारह दोषोंके नाम इस प्रकार दिये हैं: १ वीर्यान्तराय, २ भोगान्तराय, ३ उपभोगान्तराय, ४ दानान्तराय, ५ लाभान्तराय, ६ निद्रा, ७ भय, ८ अज्ञान, ९ जुगुप्सा, १० हास्य, ११ रति, १२ अरति, १३ राग, १४ द्वेष, १५ अविरति, १६ काम, १७ शोक और १८ मिध्यात्व । यथा: ―――― << “ बलभोगोपभोगानामुभयोर्दानलाभयोः । नान्तरायस्तथा निद्रा, भीरज्ञानं जुगुप्सनम् ॥२४१ ॥ हासो रत्यरती रागद्वेषावविरतिः स्मरः । शोको मिथ्यात्वमेतेऽष्टादशदोषा न यस्य सः ॥ २४२ ॥ " अठारह दोषोंके ये नाम श्वेताम्बर जैनियोंद्वारा ही माने गये हैं । 'प्रसिद्ध श्वेताम्बर साधु आत्मारामजीने भी इन्हीं अठारह दोषोंका उल्लेख अपने 'जैनतत्त्वादर्श' नामक ग्रंथके पृष्ठ ४ पर किया है । परन्तु दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में जो अठारह दोष माने जाते हैं और जिनका बहुतसे दिगम्बर जैनग्रंथोंमें उल्लेख है उनके नाम इस प्रकार हैं: - "" १ क्षुधा, २ तृषा, ३ भय, ४ द्वेष, ५ राग, ६ मोह, ७ चिन्ता, ८ जरा, ९ रोग, १० मृत्यु, ११ स्वेद, १२ खेद, १३ मद, १४ रति, १५ विस्मय, १६ जन्म, १७ निद्रा, और १८ विषाद । " दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंकी इस अष्टादशदोषोंकी नामावलीमें बहुत बड़ा अन्तर है । सिर्फ निद्रा, भय, रति, राग और द्वेष, ये पाँच दोष ही दोनोंमें एक रूपसे पाये जाते हैं। बाकी सब दोषोंका कथन परस्पर भिन्न भिन्न है और दोनोंके भिन्न भिन्न सिद्धान्तोंपर अवलम्बित है । इससे निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह ग्रंथ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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