Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ १३९ इसी प्रकार कहीं कहीं पर एक ग्रंथमें एक श्लोकका जो पूर्वार्ध है वही दूसरे ग्रंथमें किसी दूसरे श्लोकका उत्तरार्ध हो गया है। और कहीं कहीं एक श्लोकके पूर्वार्धको दूसरे श्लोकके उत्तरार्धसे मिलाकर एक नवीन ही श्लोकका संगठन किया गया है। नीचेके उदाहरणोंसे इस विषयका और भी स्पष्टीकरण हो जायगा: (१) विवेकविलासके आठवें उल्लासमें निम्नलिखित दो पद्य दिये " हरितालप्रभैश्चक्री नेत्रैनीलैरहं मदः। रक्तैर्नृपः सितैर्ज्ञानी मधुपि.महाधनः ॥३४३॥ सेनाध्यक्षो गजाक्षः स्याद्दीर्घाक्षश्विर जीवितः । विस्तीर्णाक्षो महाभोगी कामी पारावतेक्षणाः॥३४४॥" इन दोनों पद्योंमेंसे एकमें नेत्रके रंगकी अपेक्षा और दूसरेमें आकार विस्तारकी अपेक्षा कथन है । परन्तु कुंदकुंदश्रावकाचारमें पहले पद्यका पूर्वार्ध और दूसरेका उत्तरार्ध मिलाकर एक पद्य दिया है जिसका नं. ३३६ है। इससे साफ प्रगट है कि बाकी दोनों उत्तरार्ध और पूर्वार्ध छूट गये हैं। (२) विवेकविलासके इसी आठवें उल्लासमें दो पद्य इस प्रकार. "नद्याः परतटागोष्टाक्षीरद्रोः सलिलाशयात् । निर्वर्त्ततात्मनोऽभीष्टाननुव्रज्य प्रवासिनः ॥३६६॥ नासहायो न चाज्ञातै नैव दासैः समं तथा । नाति मध्यं दिनेनार्धरात्रौ मार्गे बुधो व्रजेत् ॥ ३६७॥" ... इन दोनों पद्यों से पहले पद्यमें यह वर्णन है कि यदि कोई अपना इष्टजन परदेशको जावे तो उसके साथ कहाँ तक जाकर लौट आना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68