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चाहिए। और दूसरेमें यह कथन है कि मध्याह्न और अर्ध रात्रिके समय विना अपने किसी सहायकको साथ लिये, अज्ञात मनुष्यों तथा गुलामोंके साथ मार्ग नहीं चलना चाहिए । कुंदकुंदश्रावकाचारमें इन दोनों पद्योंके स्थानमें एक पद्य इस प्रकारसे दिया है:
__“ नद्याः परतटागोष्ठात्क्षीरद्रोः सलिलाशयात् ।
नातिमध्यं दिने नार्धं रात्रौ मार्ग बुधो व्रजेत् ॥३६८॥ .. यह पद्य बड़ा ही विलक्षण मालूम होता है । पूर्वार्धका उत्तरार्धसे कोई सम्बध नहीं मिलता, और न दोनोंको मिलाकर एक अर्थ ही निकलता है । इससे कहना होगा कि विवेकविलासमें दिये हुए दोनों उत्तरार्ध और पूर्वार्ध यहाँ छूट गये हैं और तभी यह असमंजसता प्राप्त हुई है । विवेकविलासके इसी . उल्लाससंबंधी पद्य नं. ४२०
और ४२१ के सम्बन्धमें भी ऐसी ही गड़बड़ की गई है । पहले. 'पद्यके पहले चरणको दूसरे पद्यके अन्तिम तीन चरणोंसे मिलाकर एक पद्य बना डाला है; बाकी पहले पद्यके तीन चरण और दूसरे पद्यका पहला चरण; ये सब छूट गये हैं। लेखकोंके प्रमादको छोड़कर, 'पद्योंकी इस घटा बढीका कोई दूसरा विशेष कारण मालूम नहीं होता । प्रमादी लेखकों द्वारा इतने बड़े ग्रंथोंमें दस बीस पद्योंका छूट जाना तथा उलट फेर हो जाना कुछ भी बड़ी बात नहीं है। इसी लिए ऊपर यह कहा गया है कि ये दोनों ग्रंथ वास्तवमें एक ही हैं। दोनों ग्रंथों में असली फर्क सिर्फ ग्रंथ और ग्रंथकर्ताके नामोंका है-विवेकविलासकी संधियोंमें ग्रंथका नाम 'विवेकविलास ' और ग्रंथकर्ताका नाम 'जिनदत्तसूरि ' लिखा है। कुंदकुंदश्रावकाचारकी संधियोंमें ग्रंथका नाम 'श्रावकाचार ' और ग्रंथकर्ताका नाम कुछ संधियोंमें ' श्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य कुन्दकुन्दस्वामी ' और शेष
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