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और सूटताकी बात ही कौनसी हुई, यह कुछ समझ में नहीं आता । यहाँपर पाठकों के हृदय में यह प्रश्न जरूर उत्पन्न होगा कि जब ऐसा हैं तब जिनदत्तसूरिने ही क्यों इस प्रकारका कथन किया है ? इसका उत्तर सिर्फ इतना ही हो सकता है कि इस बातको तो जिनदत्त - मर ही जानें कि उन्होंने क्यों ऐसा वर्णन किया है । परन्तु ग्रंथके अंतमें दी हुई उनकी ' प्रशस्ति' से इतना ज़रूर मालूम होता है कि उन्होंने यह ग्रंथ जाबालि - नगराधिपति उदयसिंह राजाके मंत्री देवपाल के पुत्र धनपालको खुश करने के लिए बनाया था । यथा:
" तन्मनः तोपपोपाय जिनाद्यैर्दत्तसूरिभिः । श्रीविवेकविलासाख्यो ग्रंथोऽयं निर्ममेऽनघः ॥ ९ ॥ शायद इस मंत्रीमुतकी प्रसन्नता के लिए ही जिनदत्तसूरिको ऐसा लिखना पड़ा हो । अन्यथा उन्होंने खुद दसवें उल्लासके पद्य नं ० ३१ में धनादिकको अनित्य वर्णन किया है ।
(२) इस ग्रंथ के प्रथम उल्लास में जिनप्रतिमा और मंदिर के निर्माणका वर्णन करते हुए लिखा है कि गर्भगृह के अर्थभागके भित्तिद्वारा पाँच भाग करके पहले भाग में यक्षादिक की दूसरे भाग में सर्व देवियोंकी; तीसरे भाग में जितेंद्र, सूर्य, कार्तिकेय और कृष्ण की; चौथे भागमें ब्रह्माकी और पाँचवें भाग में शिवलिंग की प्रतिमायें स्थापन करनी चाहिये । यथा: - प्रासादगर्भगेहार्द्धं भित्तितः पंचधा कृते ।
"
यक्षाद्याः प्रथमे भागे देव्यः सर्वा द्वितीयके ॥ १४८ ॥ जिना कस्कन्दकृष्णानां प्रतिमा स्युस्तृतीयके । ब्रह्मा तु तुर्यभागे स्यालिंगमीशस्य पंचमे ॥ १४९ ॥ यह कथन कदापि भगवत्कुंदकुंदका नहीं हो सकता । न जैनमतका ऐसा विधान है और न प्रवृत्ति ही इसके अनुकूल पाई जाती है। श्वेताम्बर जैनियोंके मंदिरोंमें भी यक्षादिकको छोड़कर महादेव के लिंगकी
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