Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 24
________________ १५० स्थापना तथा कृष्णादिककी मूर्तियाँ देखने में नहीं आतीं। शायद यह कथन भी जिनदत्तसूरिने मंत्रीसुतकी प्रसन्नता के लिए, जिसे प्रशस्तिके सातवें पद्यमें सर्व धर्मोंका आधार बतलाया गया है, लिख दिया हो । ( ३ ) इस ग्रंथके दूसरे उल्लासका एक पद्य इस प्रकार है:" साध्वर्थे जीवरक्षायै गुरुदेव गृहादिषु । मिथ्याकृतैरपि नृणां शपथैर्नास्ति पातकम् ॥ ६९ ॥ इस पद्यमें लिखा है कि साधुके वास्ते, और जीवरक्षा के लिए गुरु तथा देवके मंदिरादिकमें झूठी कसम ( शपथ ) खानेसे कोई पाप नहीं लगता । यह कथन जैन सिद्धान्तके कहाँ तक अनुकूल है यह विचारणीय है । ( ४ ) आठवें उल्लास में ग्रंथकार लिखते हैं कि बहादुरीसे, तपसे, विद्यासे या धनसे अत्यंत अकुलीन मनुष्य भी क्षणमात्रमें कुलीन हों जाता है । यथा: ८८ शौर्येण वा तपोभिर्वा विद्यया वा धनेन वा । अत्यन्तमकुलीनोऽपि कुलीनो भवति क्षणात् ॥ ३९१ ॥” मालूम नहीं होता कि आचारादिकको छोड़कर केवल बहादुरी, विद्या या धनका कुलीनता से क्या संबंध है और किस सिद्धान्तपर यह कथन अवलम्बित है । — (५) दूसरे उल्लास में ताम्बूलभक्षणकी प्रेरणा करते हुए लिखा है कि " यः स्वादयति ताम्बूलं वक्रभूषाकरं नरः । तस्य दामोदरस्येव न श्रीस्त्यजति मंदिरम् ॥ ३९ ॥ अर्थात् — जो मनुष्य मुखकी शोभा बढ़ानेवाला पान चबाता है। उसके घरको लक्ष्मी इस प्रकार से नहीं छोड़ती जिस प्रकार वह श्री. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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