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स्थापना तथा कृष्णादिककी मूर्तियाँ देखने में नहीं आतीं। शायद यह कथन भी जिनदत्तसूरिने मंत्रीसुतकी प्रसन्नता के लिए, जिसे प्रशस्तिके सातवें पद्यमें सर्व धर्मोंका आधार बतलाया गया है, लिख दिया हो । ( ३ ) इस ग्रंथके दूसरे उल्लासका एक पद्य इस प्रकार है:" साध्वर्थे जीवरक्षायै गुरुदेव गृहादिषु । मिथ्याकृतैरपि नृणां शपथैर्नास्ति पातकम् ॥ ६९ ॥
इस पद्यमें लिखा है कि साधुके वास्ते, और जीवरक्षा के लिए गुरु तथा देवके मंदिरादिकमें झूठी कसम ( शपथ ) खानेसे कोई पाप नहीं लगता । यह कथन जैन सिद्धान्तके कहाँ तक अनुकूल है यह विचारणीय है ।
( ४ ) आठवें उल्लास में ग्रंथकार लिखते हैं कि बहादुरीसे, तपसे, विद्यासे या धनसे अत्यंत अकुलीन मनुष्य भी क्षणमात्रमें कुलीन हों जाता है । यथा:
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शौर्येण वा तपोभिर्वा विद्यया वा धनेन वा । अत्यन्तमकुलीनोऽपि कुलीनो भवति क्षणात् ॥ ३९१ ॥” मालूम नहीं होता कि आचारादिकको छोड़कर केवल बहादुरी, विद्या या धनका कुलीनता से क्या संबंध है और किस सिद्धान्तपर यह कथन अवलम्बित है ।
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(५) दूसरे उल्लास में ताम्बूलभक्षणकी प्रेरणा करते हुए लिखा है कि
" यः स्वादयति ताम्बूलं वक्रभूषाकरं नरः ।
तस्य दामोदरस्येव न श्रीस्त्यजति मंदिरम् ॥ ३९ ॥
अर्थात् — जो मनुष्य मुखकी शोभा बढ़ानेवाला पान चबाता है। उसके घरको लक्ष्मी इस प्रकार से नहीं छोड़ती जिस प्रकार वह श्री.
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