Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 22
________________ १४८ आदि बतलाते हुए ग्रंथको आशीर्वाद दिया गया; पांचवें में लक्ष्मीको चंचल कहनेवालोंकी निन्दा की गई; छट्ठे सातवेंमें लक्ष्मीकी महिमा और उसकी प्राप्तिकी प्रेरणा की गई; आठवें नौवेंमें. (इतनी दूर आकर ) ग्रंथकी प्रतिज्ञा और उसका नाम दिया गया है; दसवेंमें यह बतलाया है कि इस ग्रंथमें जो कहीं कहीं ( ? ) प्रवृत्तिमार्गका वर्णन किया गया है वह भी विवेकी द्वारा आदर किया हुआ निर्वृत्तिमार्ग में जा मिलता है; ग्यारहवें बारहवेंमें फिर ग्रंथका फल और एक बृहत् आशी - र्वाद दिया गया है; इसके बाद ग्रंथका कथन शुरू किया है। इस प्रकारका अक्रम कथन पढ़नेमें बहुत ही खटकता है और वह कदापि भगवत्कुंदकुंदका नहीं हो सकता। ऐसे और भी कथन इस ग्रंथ में पाये जाते हैं। अस्तु । इन पद्योंमेंसे पाँचवाँ पद्य इस प्रकार है:चंचलत्वं कलंक ये श्रियो ददति दुर्धियः । ते मुग्धाः स्वं न जानन्ति निर्विवेकमपुण्यकम् ॥ ५ ॥ अर्थात् - जो दुर्बुद्धि लक्ष्मपर चंचलताका दोष लगाते हैं वे मूढ़ यह नहीं जानते हैं कि हम खुद निर्विवेकी और पुण्यहीन हैं । भावार्थ, जो लक्ष्मीको चंचल बतलाते हैं वे दुर्बुद्धि, निर्विवेकी और पुण्यहीन हैं। पाठकगण ! क्या अध्यात्मरसके रसिक और अपने ग्रंथोंमें स्थान स्थानपर दूसरोंको शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्ति करनेका हार्दिक प्रयत्न करनेवाले महर्षियों के ऐसे ही वचन होते हैं ? कदापि नहीं । भगवत्कुंदकुंद तो क्या सभी आध्यात्मिक आचार्योंने लक्ष्मीको 'चंचला ' 'चपला, ' ' इन्द्रजालोपमा, ' ' क्षणभंगुरा,' इत्यादि विशेषणोंके साथ वर्णन किया है । नीतिकारोंने भी ' चलालक्ष्मीश्चलाः प्राणाः ....' इत्यादि वाक्योंद्वारा ऐसा ही प्रतिपादन किया है और वास्तवमें लक्ष्मीका स्वरूप है भी ऐसा ही । फिर इस कहने में दुर्बुद्धि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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