Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 15
________________ संधियोंमें केवल 'कुन्दकुन्द स्वामी' दर्ज है---इसी फर्कके कारण प्रथम उल्लासके दो पद्योंमें इच्छापूर्वक परिवर्तन भी पाया जाता है। विवेकविलासमें वे दोनों पद्य इस प्रकार हैं: “जीववत्प्रतिभा यस्य वचोमधुरिमां चितम् । देहं गेहं श्रियस्तं स्वं वंदे सूरिवरं गुरुम् ॥३॥ स्वस्यानस्यापि पुण्याय कुप्रवृत्तिनिवृत्तये । श्रीविवेकविलासाख्यो ग्रंथः प्रारभ्यते मितः ॥४॥" इन दोनों पद्योंके स्थानमें कुंदकुंदश्रावकाचारमें ये पद्य हैं: "जीववत्प्रतिभा यस्य वचो मधुरिमांचितम् । देहं गेहं श्रियस्तं स्वं वंदे जिनविधुं गुरुम् ॥३॥ स्वस्यानस्यापि पुण्याय कुप्रवृत्तिनिवृत्तये । श्रावकाचारविन्यासग्रंथः प्रारभ्यते मितः ॥ ४॥" दोनों ग्रंथोंके इन चारों पद्योंमें परस्पर ग्रंथ नाम और ग्रंथकर्ताके गुरुनामका ही भेद है। समूचे दोनों ग्रंथोंमें यही एक वास्तविक भेद पाया जाता है। जब इस नाममात्रके ( ग्रंथनाम--ग्रंथकर्तानामके ) भेदके सिवा और तौर पर ये दोनों ग्रंथ एक ही हैं तब यह जरूरी है कि इन दोनोंमेंसे, उभयनामकी सार्थकता लिये हुए, कोई एक ग्रंथ ही असली हो सकता है; दूसरेको अवश्य ही नकली या बनावटी कहना होगा। ___ अब यह सवाल पैदा होता है कि इन दोनों ग्रंथोंमेंसे असली कौन है और नकली बनावटी कौनसा? दूसरे शब्दोमें यों काहिए कि क्या पहले कुंदकुंदश्रावकाचार मौजूद था और उसकी संधियों तथा दो पद्योंमें नामादिकका परिवर्तनपूर्वक नकल करके जिनसूरि या उनके नामसे किसी दूसरे व्यक्तिने उस नकलका नाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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