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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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रहा था। जनता हाथी की भयंकरता से आकुलित हो रही थी। बड़े-बड़े योद्धा भी उसे बांधने का साहस नहीं कर सके । किन्तु जम्बूकुमार ने श्रचिन्त्य साहस और बल से उस पर सवार होकर उस उन्मत्त हाथी को क्षणमात्र में वश में कर लिया । श्रतएव जनता में जम्बूकुमार के साहस की प्रशंसा होने लगी । लोग कहने लगे- धन्य है कुमार का अद्भुत बल, जिसने देखते-देखते क्षणमात्र में भयानक हाथी को वश में कर लिया। यह सब उसके पुण्य का माहात्म्य हैं, इसलिये यह महापुरुषों द्वारा पूज्य है । गुग्य से ही सम्पदा, दुख सामग्री और विजय मिलती है ।
जम्बूकुमार ने केरल के युद्ध में जो वीरता दिखलाई बहु श्रद्वितीय थी । रत्नशेखर से युद्ध करते हुए जम्बूकुमार ने उसको बांध लिया। युद्ध कितना भयंकर होता है इसे योद्धा अच्छी तरह से जानते हैं । कहाँ रत्नशेखर की बड़ी भारी सेना और कहाँ अकेला जम्बूकुमार। किन्तु जम्बुकुमार ने अपने बुद्धि कौशल और आत्मबल से शत्रु पर अपनी वीरता का सिक्का जमा लिया, बन्दी हुए केरल नरेश को बन्धन से मुक्त किया उसकी सुपुत्री विलासवती का विम्बसार के साथ विवाह करा दिया; और केरल नरेश मृगांक तथा रत्न शेखर में परस्पर मेल करा दिया। इन सब घटनाओं से जम्बुकुमार की महानता का पता चलता
जम्बूकुमार जब केरल से वापिस लौट कर आ रहा था, तब उसे विपुलाचल पर सुधर्म गणधर के आने का पता चला। वह उनके समीप गया, और नमस्कार कर थोड़ी देर एकटक दृष्टि से उनकी ओर देखता रहा। जम्बूकुमार का उनके प्रति आकर्षण बढ़ रहा था। पर उसे यह स्मरण न हो सका कि मेरा इनके प्रति इतना आकर्षण क्यों है? क्या मैंने इन्हें कहीं देखा है, इस अनुराग का क्या कारण है ? तब उसने समीप में जाकर पुनः नमस्कार किया और उनसे अपने अनुराग का कारण पूछा। तब उन्होंने बतलाया कि पूर्व जन्मों में मैं और तुम दोनों भाईभाई थे। हम दोनों में परस्पर बड़ा अनुराग था । मेरा नाम भवदल और तुम्हारा नाम भवदेव था। सागरसेन या सागरचन्द्र पुण्डरीकिणी नगरी में चारण मुनियों से अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर देह-भोगों से विरक्त हो मुनि हो गया मौर त्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करने हुए भाई के सम्बोधनार्थ वीतशोका नगरी में पधारे। वहाँ भवदेव का जीव चन्द्रवती का शिवकुमार नामक पुत्र हुआ था। शिवकुमार ने महलों के ऊपर से मुनियों को देखा, उससे उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया और मांगों से उसके मन में विरक्तता का भाव उत्पन्न हुआ । उससे राजप्रासाद में कोलाहल मच गया। शिवकुमार ने माता-पिता मे दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पिता ने बहुत समझाया, और कहा-तप और व्रतों का अनुष्ठान घर में भी हो सकता | दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं है । पिता के अनुरोधवश कुमार ने तरुणी जनों के मध्य में रहते हुए भी विरक्त भाव से ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान किया । इस प्रसिधारा व्रत का पालन करते हुए शिवकुमार दूसरों के यहाँ पाणिपात्र में प्राशुक बाहार करता था । प्रायु के अन्त में ब्रह्म स्वर्ग में विद्युन्माली देव हुया । मैं भी उसी स्वर्ग में गया। वहाँ से चयकर मैं सुधर्म हुआ हूँ और तुम जम्बूकुमार नाम के पुत्र हुए। यही तुम्हारा मेरे प्रति स्नेह का कारण है ।
जम्बूकुमार ने सुधर्म स्वामी का उपदेश सुना, उससे उसके हृदय में राज्य का प्रवाह उमड़ पाया, और उसने सुधर्माचार्य से दीक्षा देने के लिए निवेदन किया। तब उन्होंने कहा कि जम्बूकुमार ! तुम अपने मातापिता से आज्ञा लेकर आओ, तब दोक्षा दी जाएगी। कुटुम्बियों ने भी अनुरोध किया और कहा कि कुमार ! अभी दीक्षा न लो। कुछ समय बाद ले लेना । अतः जम्बकुमार घर वापिस आ गया। माता-पिता ने उसे विवाह के बंधन धने का प्रयत्न किया। तब जम्बूकुमार ने विवाह कराने से इनकार कर दिया। सेठ दास ने अपने मित्र सेठों के घर यह सन्देश भिजवा दिया कि जम्बूकुमार विवाह कराने से इनकार करता है। अतः श्राप अपनी पुत्रियों का सम्बन्ध अन्यत्र कर सकते हैं। उनकी पुत्रियों ने कहा कि विवाह तो उन्हीं से होगा, अन्यथा हम कुमारी रहेंगी । वे एक रात्रि हमें दें, उसके बाद उन्हें दीक्षा लेने से कोई नहीं रोकेगा। अतः विवाह हुआ। विवाह के पश्चात् जम्बूकुमार घर प्राया और रात्रि में स्त्रियों के मध्य में बैठकर चर्चा होने लगी । बहुएं अनुरागवर्धक अनेक प्रश्नोत्तरों और कथा कहानियों, दृष्टान्तों द्वारा जम्बूकुमार को निरुत्तर करने या रिझाने में समर्थ न हो सकीं। उन्होंने शृङ्गार परक हाव-भाव रूप चेष्टाओं का अवलम्बन भी लिया, किन्तु जम्बूकुमार पर वे प्रभाव डालने में सर्वथा असमर्थ रहीं । विद्युत चोर अपने साथियों के साथ जिनदास के घर चोरी करने श्राया और छिपकर खड़ा