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विनय अनुशासन
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जह दूओ रायाणं, णमिउ कज्जं निवेइउ पच्छा । वीसज्जिओवि वंदिय, गच्छइ साहूवि एमेव ॥ - आव० नि० १२३४
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दूत जिस प्रकार राजा आदि के सामने निवेदन करने से पहले भी और पीछे भी नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य को भी गुरुजनों के समक्ष जाते और आते समय नमस्कार करना चाहिए ।
विवो वि तवो, तवो पि धम्मो ।
- प्रश्नव्याकरण २३ विनय स्वयं एक तप है, और वह आभ्यन्तर तप होने से श्रेष्ठ धर्म है ।
विणओ सासणे मूलं विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तओ ? विशेषा० भा० ३४६८
विनय जिनशासन का मूल है, विनीत ही संयमी हो सकता है । जो विनय से हीन है, उसका क्या धर्म और क्या तप ?
न विनयशून्ये गुणावस्थानम् ।
विनयहीन व्यक्ति में सद्गुण नहीं ठहरते । विणयमूले घम्मे पन्नत्ते ।
धर्म का मूल विनय - आचार ( अनुशासन ) है ।
- उत्त० चूर्णि १
-ज्ञाता धर्मकथा १५
१६. जत्थेव धम्मायरियं पासेज्जा, तत्थेव वंदिज्जा नमसिज्जा । - राजप्रश्नीय ४|७६
जहां कहीं भी अपने धर्माचार्य को देखें, वहीं पर उन्हें वन्दना नमस्कार करना चाहिए ।