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सो नाम अणसणतवो, जेण मणो ऽ मंगल न चिंतेइ । जेण न इन्दियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥
जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ
मरणसमाधि १३४
वही अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो, और नित्य प्रति की योग — धर्म क्रियाओं में विघ्न
न आए ।
तवेण परिसभई ।
तपस्या से आत्मा पवित्र होती है । तवेणं वोदाणं जणयइ ।
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अपना बल, दृढ़ता, श्रद्धा, आरोग्य तथा आत्मा को तपश्चर्या में लगाना चाहिए ।
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- उत्तराध्ययन २८ ३५
- उत्तराध्ययन २६ २७
तप से कर्मों का व्यवदान - ( आत्मा से दूर हटना ) होता है ।
बलं थामं च पेहाए, सद्धामा रोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजु जए |
- दशवेकालिक ८।३५
क्षेत्र - काल को देखकर
तदेव हि तपः कार्यं, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणिच ।
- तपोष्टक
तप वैसा ही करना चाहिए, जिसमें दुर्ध्यान न हो, योगों की हानि न हो और इन्द्रियाँ क्षीण न हों !
१५.
नन्नत्थ निज्जरट्ट्याए तवमहिट्ठेज्जा
- दशर्वकालिक ६४
केवल कर्म-निर्जरा के लिए तपस्या करना चाहिए । इहलोक - परलोक व यशःकीर्ति के लिए नहीं ।