Book Title: Jain Dharm ki Hajar Shikshaye
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 255
________________ तत्वदर्शन २२१ अपने-अपने पक्ष में ही प्रतिबद्ध परस्पर निरपेक्ष सभी नय (मत) मिथ्या हैं, असम्यक् हैं । परन्तु ये ही नय जब परस्पर सापेक्ष होते हैं, तब सत्य एवं सम्यक् बन जाते हैं। २४, ण वि अस्थि अण्णवादो, ण वि तव्वाओ जिणोवएसम्मि । -सन्मतितर्क ३२६ जैन-दर्शन में न एकान्त भेदवाद मान्य है और न एका-त अभेदवाद । (अत: जैन-दर्शन भेदाभेदवादी दर्शन है।) जावइया वयणपहा, तावइया चेव होंति णयवाया। जावडया णयवाया, तावइया चेव परसमया। -सन्मतितर्क ३३४७ जितने वचन विकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं, और जितने भी नयवाद हैं, संसार में उतने ही पर-ममय है, अर्थात् मत-मतान्तर दव्वं खित्तं कालं, भावं पज्जाय देस संजोगे। भेदं पडुच्च समा, भावाणं पण्णवणपज्जा ।। -सन्मतितकं ३॥६० वस्तुतत्व की प्ररूपणा द्रव्य (पदार्थ की मूलजाति), क्षेत्र (स्थिति-क्षेत्र), काल (योग्य-समय), भाव (पदार्थ की मूलशक्ति), पर्याय (शक्तियों के विभिन्न परिणमन अर्थात कार्य), देश (व्यावहारिक स्थान), सयोग (आस-पास की पर्गिस्थति), और और भेद (प्रकार) के आधार पर ही सम्यक् होती है । २७. भदं मिच्छा दंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।। -सन्मतितर्क ३१६६

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