Book Title: Jain Dharm ki Hajar Shikshaye
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 260
________________ २२६ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं अप्पणो णाम एगे वज्जं पासइ, णो परस्स । परस्स णामं एगे वजं पासइ, णो अप्पणो । एगे अप्पणो वज्ज पासइ, परस्स वि । एगे णो अप्पणो वज्ज पासइ, णो परस्स । -स्थानांग ४१ कुछ व्यक्ति अपना दोष देखते हैं, दूसरों का नहीं । कुछ दूसरों का दोष देखते हैं, अपना नहीं । कुछ अपना दोष भी देखते हैं, दूसरों का भी । कुछ न अपना दोष देखते हैं, न दूसरों का । चत्तारि पुप्फारूवसंपन्ने णाम एगे णो गंधसंपन्ने । गंधसंपन्ने णामं एगे नो रूवसंपन्ने । एगे रूवसंपन्ने वि गंधसंपन्ने वि । एगे णो रूवसंपन्ने णो गधसंपन्ने । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया। -स्थानांग ४१३ फूल चार तरह के होते हैंसुन्दर, किन्तु गंधहीन। गंधयुक्त, किन्तु सौन्दर्यहीन । सुन्दर भी, सुगन्धित भी। न सुन्दर, न गंधयुक्त। फूल के समान मनुष्य भी चार तरह के होते है । [भौतिक सम्पत्ति सौन्दर्य है, तो आध्यात्मिक सम्पत्ति सुगंध है] अट्ठकरे णामं एगे णो माणकरे । माणकरे णामं एगे णो अट्ठकरे ।

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