Book Title: Jain Dharm ki Hajar Shikshaye
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 263
________________ गुच्छक २२९ (क) हिययमपावमकलुसं, जीहा वि य मधुरभासिणी णिच्चं । जंमि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुभे मधुपिहाणे॥ जिसका अन्तर हृदय निष्पाप और निर्मल है, साथ ही वाणी भी मधुर है, वह मनुष्य मधु के घड़े पर मधु के ढक्कन के समान है। (ख) हिययमपावमकलुसं, जीहावि य कड्यभासिणी णिच्चं । जंमि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुमे विसपिहाणे ॥ जिसका हृदय तो निष्पाप और निर्मल है, किन्तु वाणी से कटु एवं कठोर भाषी है, वह मनुष्य मधु के घड़े पर विप के ढक्कन के समान है। (ग) जं हिययं कलुसमय, जीहा वि य मधुरभासिणी णिच्चं । जमि पुरिसम्मि विज्जति, से विषकुभे महुपिहाणे ॥ जिसका हृदय कलुपित और दम्भ युक्त है, किन्तु वाणी से मीठा बोलता है । वह मनुष्य विष के घड़े पर मधु के ढक्कक के समान (घ) जं हिययं कलुसमयं, जीहा.वि य कड्यभासिणी णिच्वं । जंमि पुरसंमि विज्जति, से विसकुभे विसपिहाणे ॥ -स्थानांग ४४ जिसका हृदय भी कलुषित है और वाणी से भी सदा कटु बोलता है, वह पुरुप विष के घड़े पर विप के ढक्कन के समान है। समुद्द तरामीतेगे समुद्द तरइ । समुदं तरामीतेगे गोप्पयं तरइ। गोप्पयंतरामीतेगे समुदं तरइ । गोप्पयं तरामीतेगे गोप्पयं तरइ । -स्थानांग४४

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