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· कर्म-अकर्म
अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ ।
-आचारांग १।३३१ जो कर्म में से अकर्म की स्थिति में पहुंच गया है, वह तत्त्वदर्शी
लोक व्यवहार की सीमा से परे हो गया है २. कम्मुणा उवाही जायइ।
-आचारांग ११३।१ कर्म से ही समग्र उपाधियाँ-विकृतियां पैदा होती हैं । कम्ममूलं च ज णं ।
--आचारांग ११३१ कर्म का मूल क्षण अर्थात् हिंसा है। ४. सव्वे सयकम्मकप्पिया।
-सूत्रकृतांग १।२।६।१८ सभी प्राणी अपने कृत-कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं। जहाकडं कम्म, तहासि भारे।
-सूत्रकृतांग ११५॥१०२६ जैसा किया हुआ कर्म, वैसा ही उसका भोग ।
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