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________________ १७ · कर्म-अकर्म अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ । -आचारांग १।३३१ जो कर्म में से अकर्म की स्थिति में पहुंच गया है, वह तत्त्वदर्शी लोक व्यवहार की सीमा से परे हो गया है २. कम्मुणा उवाही जायइ। -आचारांग ११३।१ कर्म से ही समग्र उपाधियाँ-विकृतियां पैदा होती हैं । कम्ममूलं च ज णं । --आचारांग ११३१ कर्म का मूल क्षण अर्थात् हिंसा है। ४. सव्वे सयकम्मकप्पिया। -सूत्रकृतांग १।२।६।१८ सभी प्राणी अपने कृत-कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं। जहाकडं कम्म, तहासि भारे। -सूत्रकृतांग ११५॥१०२६ जैसा किया हुआ कर्म, वैसा ही उसका भोग । १६२
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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