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ध्यान-साधना
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कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्मज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्मज्ञान प्राप्त होता है । अतः ध्यान आत्मा के लिए अत्यंत हितकारी माना गया है। १. झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वदिचारस्स पडिक्कमणं ।।
-नियमसार ६३ ध्यान में लीन हुआ साधक सब दोषों का निवारण कर सकता है।
इसलिए ध्यान ही समग्र अतिचारों (दोपो) का प्रतिक्रमण है। ६. वीतरागो विमुच्येत, वीतरागं विचिन्तयन् ।
-योगशास्त्र ६।१३ वीतराग का ध्यान करता हुआ योगी स्वय वीतराग होकर कर्मों से या वासनाओं से मुक्त हो जाता है ।
ओयं चित्तं समादाय झाणं समुप्पज्जइ । धम्मे ठिओ अ विमणे, निव्वाणमभिगच्छइ ।।
-दशा तस्कंध ५११ चित्तवृत्ति निर्मल होने पर ही ध्यान की सही स्थिति प्राप्त होती है। जो बिना किसी विमनस्कता के निर्मल मन से धर्म में स्थित
है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है। ८. म चित्तं समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ ।
-दशा तस्कंध २२ निर्मल चित्तवाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता।
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