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कर्म-अकर्म
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एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं ।
-सूत्रकृतांग १।२।२।२२ आत्मा अकेला ही अपने किए हुए दुःख को भोगता है ।
जं जारि पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए।
-सूत्रकृतांग ११२२ अतीत में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी
रूप में उपस्थित होता है। ८. तुति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ।
-सूत्रकृतांग १११६ जो नए कर्मों का बन्धन नहीं करता है, उसके पूर्वबद्ध पापकर्म
भी नष्ट हो जाते हैं। ६. अकुव्वओ णवं णत्थि ।
-सूत्रकृतांग ११११७ जो अन्दर में राग-द्वेष रूप-भावकर्म नहीं करता, उसे नए कर्म
का बन्ध नहीं होता। १९. दुक्खी दुक्वेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे।
-भगवती ७१ जो दुःखित-कर्म-बद्ध है, वही दु:ख-बन्धन को पाता है, जो दुःखित बद्ध नहीं है वह दुःख-बन्धन को नहीं पाता।
सकम्मुणा किच्चइ पावकारी.. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।
-उत्तराध्ययन ४१३ पापात्मा अपने ही कर्मों में पीड़ित होता है । क्योंकि "
कृत-कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है । १३