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जनधर्म की हजार शिक्षाएं १२. कम्मसच्चा हु पाणिणो।
-उत्तराध्ययन ७।२० प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं। १३. बहुकम्म लेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसि ।
-उत्तराध्ययन ८।१५ जो आत्माएं बहुत अधिक कर्मों से लिप्त हैं, उन्हें बोधि प्राप्त
होना अति दुर्लभ है। १४. कतारमेव अणुजाइ कम् ।
--. उत्तराध्ययन १३।२३ कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे।
-उत्तराध्ययन ३२१४६ आत्मा प्रदुष्टचित्त (राग-द्वेप से कलुषित) होकर कर्मों का संचय करती है । वे कर्म, विपाक (परिणाम) में बहुत दुःखदायी होते हैं। जहा जहा अप्पतरो से जोगो,
तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरुद्धजोगिस्स व से ण होति. अछिद्दपोतस्स व अंबुणाधे ।।
-बृहत्कल्पभाष्य ३९२६ जैसे-जैसे मन वचन, काया के योग (संघर्प) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे-वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है । योग चक्र का पूर्णतः निरोध होने पर आत्मा में वन्ध का सर्वथा अभाव होता जाता है । जैसे कि समुद्र में रहे हुए अच्छिद्र जलयान में जलागमन का अभाव होता है।
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