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सदाचार
जहा सुणी पूइकन्नी, निक्कसिज्जई सव्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई ।।
-उत्तराध्ययन ११४ जिस प्रकार सड़े हुए कानोंवाली कुतिया जहाँ भी जाती है, जाती है, उसी प्रकार दुःशील, उद्दण्ड और मुखर -- वाचाल मनुष्य निकाल दी भी सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है।
कणकुडगं चइत्ताणं, विटुं भुजइ सूयरे । एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए ।
-उत्तराध्ययन ११५ जिस प्रकार चावलों का स्वादिष्ट भोजन छोड़कर सूकर विष्ठा खाता है। उसी प्रकार पशुवत् जीवन बितानेवाला अज्ञानी, शील-सदाचार को छोड़कर दुःशील-दुराचार को पसन्द करता है।
चोराजिणं नगिणिणं जडी संघाडि मुंडिणं । एयाणि वि न तायन्ति दुस्सीलं परियागयं ॥
-उत्तराध्ययन ५२२१ चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएं, कंथा और सिरोमुण्डन-यह सभी उपक्रम आचारहीन साधक की (दुर्गति से) रक्षा नहीं कर सकते।
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