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१०५ ११. आगमहीणो समणो णेवप्माणं परं पियाणादि ।
-प्रवचनसार ३१३० शास्त्रज्ञान से शून्य श्रमण न अपने को जान पाता है और न
पर को। १२. जा चिट्ठा सा सव्वा सजमहेउति होति समणाणं ।
-निशीथभाष्य २६४ श्रमणों की सभी चेष्टा-अर्थात् क्रियाएं सयम के हेतु होती है। १३. समो सव्वत्थ मणो जम्स भवति स समणो।
-उसराध्ययनचूणि २ जिसका मन सर्वत्र सम रहता है, वही श्रमण है। १४. जह मम ण पियं दुक्ख, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ अ सम मणइ तेण सो समणो।।
- अनुयोगद्वार १२६ जिस प्रकार मुझको दुःख प्रिय नही है, उसी प्रकार सभी जीवों को दुःख प्रिय नही है, जो ऐसा जानकर न स्वय हिसा करता है, न किसी से हिसा करवाता है, वह समत्वयोगी ही सच्चा 'समण' है।
तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयणे अ जणे अ समो, समो अ माणावमाणेसु ।
-अनुयोगद्वार १३२ जो मन से सु-मन (निर्मल मनवाला) है, सकल्प से कभी पापोन्मुख नहीं होता, स्वजन तथा परजन मे, मान एवं अपमान में सदा सम रहता है, वह 'श्रमण' होता है। उवसमसारं खु सामण्णं ।
-हत्कल्पभाष्य ११३५ श्रमणत्व का सार है-उपशम !