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जैन धर्म: सार सन्देश सुख अपने-आप उसकी मुट्ठी में आ जाते हैं, मानो सभी मनोरथों को सिद्ध करनेवाली कामधेनु और सभी अभिलाषाओं को पूरा करनेवाला कल्पवृक्ष सदा उसकी सेवा में उपस्थित हों।
जैन धर्म के चौथे लक्षण को बताते हुए बोध पाहुड़ ग्रन्थ में कहा गया है: "धम्मो दया विशुद्धो" अर्थात् "धर्म दया द्वारा विशुद्ध होता है"4 दूसरे शब्दों में दया ही धर्म का मूल है। इसलिए कुरल काव्य में यह उपदेश दिया गया है: "सही तरीके से सोच-विचारकर हृदय में दया धारण करो, क्योंकि सभी धर्म कहते हैं कि दया ही मोक्ष का साधन है।"15 बिना दया के धर्म सम्भव ही नहीं है।
शुभचन्द्राचार्य ने अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णाव में 'धर्मभावना' की व्याख्या प्रारम्भ करते हुए अपने पहले ही श्लोक में जैन धर्म के इन चारों सामान्य लक्षणों का उल्लेख संक्षेप में इस प्रकार किया है:
पवित्री क्रियते येन येनैवोद्धियते जगत्।
नमस्तस्मै दयार्द्राय धर्मकल्पाङ्घिपाय वै॥16 अर्थात् जिससे जीव पवित्र किये जाते हैं, जिससे संसार के जीवों का उद्धार किया जाता है और जो दया के रस से गीला या भीगा हुआ है, उस धर्मरूपी कल्पवृक्ष के लिए मेरा नमस्कार है।
इस प्रकार इस मंगलात्मक श्लोक में शुभचन्द्राचार्य ने धर्म के चारों सामान्य लक्ष्णों को बतलाकर उसे नमस्कार किया है।
जैन धर्म के इन्हीं सामान्य लक्षणों को ध्यान में रखकर नाथूराम डोंगारीय जैन ने धर्म के स्वरूप को इन शब्दों में व्यक्त किया है: ।
जैनाचार्यों के कथनानुसार धर्म ही ऐसी वस्तु है जो प्राणीमात्र को चाहे वह कितना ही पतित क्यों न हो, संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख (वास्तविक आनन्द) प्रदान कर सकती है। वह न केवल परलोक में सुख देनेवाली चीज़ है; बल्कि सच्चा धर्म वह है जो जिस क्षण से पालन किया जाता है उसी क्षण से सर्वत्र और सर्वदा आत्म शांति प्रदान करता है और अपने साथ दूसरों को भी सुखी बनाता है।"