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जैन धर्म का स्वरूप
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जिन-भावना से रहित अर्थात् सम्यग्दर्शन से रहित नग्न-श्रमण सदा दुःख पाता है, संसार-सागर में भ्रमण करता है और वह बोधि अर्थात रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग को चिरकाल तक नहीं पाता है।"
जैनधर्मामत में भी कहा गया है:
मोहरहित सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मोक्षमार्ग पर स्थित है, किन्तु मोहवान् मुनि मोक्षमार्ग पर स्थित नहीं है, क्योंकि मोही (मोहग्रसित) मुनि से निर्मोही (मोहरहित) गृहस्थ श्रेष्ठ माना जाता है।80
कुछ लोग स्वयं निर्मल हुए बिना केवल यश प्रतिष्ठा या धन-प्राप्ति के लोभ से दूसरों को धर्म का उपदेश देते फिरते हैं। इस सम्बन्ध में पण्डित टोडरमल ने कहा है:
वक्ता कैसा होना चाहिए कि जिसको शास्त्र वांचकर आजीविका आदि लौकिक कार्य साधने की इच्छा न हो; क्योंकि, यदि आशावान हो तो यथार्थ उपदेश नहीं दे सकता, ...यदि वक्ता लोभी हो तो वक्ता स्वयं हीन हो जाय... । इसलिए जो आत्मरस का रसिया वक्ता है, उसे जिन धर्म के रहस्य का वक्ता जानना। ...ऐसा जो वक्ता धर्मबुद्धि से उपदेशदाता हो वही अपना तथा अन्य जीवों का भला करे। और जो कषाय बुद्धि (राग, द्वेष, मोह, माया, लोभ आदि से सनी बुद्धि) से उपदेश देता है वह अपना तथा अन्य जीवों का बुरा करता है-ऐसा जानना। गणेशप्रसाद वर्णी ने भी बड़े ही स्पष्ट रूप से कहा है: आप जब तक निर्मल न हों तब तक उपदेश देने के पात्र नहीं हो सकते।82
धर्म के वास्तविक मर्म को पूरी तरह न जाननेवाले या अपने लोभवश दूसरों को उपदेश देनेवाले लोग जन-साधारण को अनेक प्रकार की बहिर्मुखी क्रियाओं या हठकर्मों में उलझा देते हैं जिससे उनका जीवन बरबाद हो जाता है। जैन धर्म में ऐसे कर्मों को करना 'लोकमूढ़ता' है।