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अन्तर्मुखी साधना
जो योगी या साधक विशेषरूप से जितेन्द्रिय हैं वे आसन का जय करते हैं, अर्थात् आसन को जीतते हैं, क्योंकि जिनका आसन भले प्रकार से स्थिर है वे समाधि में किञ्चिन्मात्र (तनिक भी) कष्ट नहीं प्राप्त करते। भावार्थ-आसन को जीत ले तो समाधि (ध्यान) से चलायमान नहीं होता। ___ आसन के अभ्यास की विकलता से शरीर की स्थिरता नहीं रहती और समाधि के समय शरीर की विकलता से निश्चय ही कष्ट होता है।
उत्तम साधक या योगी को पर्यङ्कासन करके (पलथी लगाकर) ध्यान करना चाहिए। साधक या मुनि जब ध्यान का आसन जमाकर बैठे तब ऐसा होना चाहिए कि उसका अंग वा मन किसी प्रकार भी चलायमान न हो, तथा उसके वेगों का संकल्प शान्त हो गया हो, + उसके समस्त भ्रम नष्ट हो गये हों, ऐसा निश्चल हो कि समीपस्थ प्राज्ञ (बुद्धिमान् ) पुरुष भी ऐसा भ्रम करने लग जाये कि यह क्या पाषाण की मूर्ति है या चित्रित मूर्ति है। इस प्रकार आसन जीतने का विधान कहा गया है।
जो साधक संयमी और विषयों के प्रति अनासक्त भाव धारण करनेवाले हैं, वे किसी भी आसन या अवस्था में निश्चल होकर ध्यान कर सकते हैं। इसलिए उनके ध्यान करने के लिए आसन आदि का कोई नियम नहीं है, जैसा कि ज्ञानार्णव में कहा गया है:
जो साधक या योगी संवेग वैराग्य युक्त हो (अपने मनोवेगों से उदासीन हो चुका हो), जो संवर रूप हो (काम, क्रोध आदि विकारों के प्रवाह से संवृत या सुरक्षित हो), धीर हो, जिसकी आत्मा स्थिर हो, चित्त निर्मल हो, वह मुनि सर्व अवस्था सर्व क्षेत्र और सर्व काल में ध्यान करने योग्य है।
आदिपुराण में भी पलथी लगाकर सरल भाव से सीधे होकर सुखपूर्वक ध्यान में बैठने का उपदेश देते हुए कहा गया है: