Book Title: Jain Dharm Sar Sandesh
Author(s): Kashinath Upadhyay
Publisher: Radhaswami Satsang Byas

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Page 333
________________ 332 जैन धर्म : सार सन्देश वह सांसारिक वस्तुओं के लाभ या अलाभ में समान रहने लगता है और लोष्ठ-कांचन (मिट्टी के ढेले और सोने ) को सम-दृष्टि से देखने लगता है। 25 125/ अपनी अन्तरात्मा का ज्ञान होने पर ही परमात्मा का ज्ञान होता है । इसलिए परमात्मा का ज्ञान करने के पहले अपनी अन्तरात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है। इसे स्पष्ट करते हुए शुभचन्द्राचार्य अपने ज्ञानार्णव ग्रन्थ में कहते हैं: अज्ञातस्वस्वरूपेण परमात्मा न बुध्यते । आत्मैव प्राग्विनिश्चेयो विज्ञातुं पुरुषं परम् ॥ अर्थ - जिसने अपने आत्मा का स्वरूप नहीं जाना वह परम पुरुष परमात्मा को नहीं जान सकता। इस कारण परम पुरुष - परमात्मा को जानने की इच्छा रखनेवाला पहिले अपने आत्मा का ही निश्चय करै । 26 इसलिए अन्तरात्मा पर विचार करने के बाद अब हम परमात्मा के सम्बन्ध में विचार करेंगे। परमात्मा सभी जीव परमात्मा बनना चाहते हैं, सबकी आन्तरिक प्रवृत्ति परमात्मा बनने की है; क्योंकि सभी परमात्मा के ही अव्यक्त या अप्रकट रूप हैं, या यों कहें कि सबमें परमात्मा अव्यक्त रूप से वर्तमान है। 27 जीव का परमात्मरूप प्राप्त कर लेना ही मोक्ष कहा जाता है । अपने स्वरूप का ज्ञान न होने के कारण अज्ञानी जीव अपने से भिन्न बाहरी वस्तुओं या व्यक्तियों (धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब - परिवार आदि) को अपना समझकर उनमें सुख ढूँढ़ने की कोशिश करता है । पर ये सभी मिथ्या और नश्वर हैं। उनसे सच्चा सुख प्राप्त नहीं हो सकता । सच्चा सुख परमात्म पद, मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति करने से ही मिलता है। जैनधर्मामृत में इस परम कल्याणरूप सुख का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है।

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