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आत्मा से परमात्मा भण्डार होते हैं। इसलिए उनके प्रति की गयी भक्ति अपने-आप भक्तों के हृदय की मैल को धोकर उन्हें पवित्र कर देती है। इसप्रकार जो भक्त साकार परमात्मरूप सच्चे महात्मा या अरहन्त देव के प्रति भक्ति-भाव रखकर दृढ़ता के साथ अभ्यास में लगता है वह अपनी भक्ति-पूर्ण साधना द्वारा परमात्मा बन जाता है। ____नाथूराम डोंगरीय जैन ने इस विषय को बड़ी ही स्पष्टता के साथ समझाया है। यह समझाते हुए कि किसी के गुण-दोषों से मनुष्य किस प्रकार प्रभावित होता है और किस प्रकार परमार्थ की राह दिखलानेवाले सतगुरु या अरहन्त देव के प्रति उसकी भक्ति उमड़ पड़ती है, वे कहते हैं:
गुणों के चिंतवन करने से गुणों और दोषों के विचार करने से दोषों की वृद्धि होना स्वाभाविक नियम है। फिर परमात्मा के गुणों का, जो कि मोहादि आत्म शत्रुओं पर वीरतापूर्वक विजय प्राप्त कर आदर्श बन चुका है, चितवन करके हम लोग भी, जो कि राग, द्वेष, मोहादिक के कारण अपनी वास्तविकता को भूले हुए हैं और दुर्भावनाओं एवं वासनाओं की जंजीर में जकड़े हुए हैं, यदि आत्म शत्रुओं पर वीरता पूर्ण विजय प्राप्त करने की अलौकिक कला को सीख लें एवं आत्मबोध
और जागृति को प्राप्त कर दुःख सागर के भँवर के चक्कर से निकलने का उपाय जान लें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
श्रद्धा का भक्ति के साथ अट सम्बन्ध है। जिस व्यक्ति में गुण होते हैं, मानवीय विवेक श्रद्धापूर्वक उसका स्वभाव से भक्त बन जाता है। फिर जिसे हम पवित्र समझते और अपना सन्मार्ग प्रदर्शक के रूप में महान् उपकारी भी मानते हों, एवं उसी जैसा सुखी, पूर्ण व निर्दोष बनने की उत्कण्ठा भी हमारे अन्तःकरण में घर किये हो, तथा जो विश्व के श्रेष्ठ से श्रेष्ठ जनों में भी आदर्श और सर्व श्रेष्ठ व्यक्ति हो, उसके प्रति हृदय में श्रद्धा हो जाने पर भक्ति का स्रोत उमड़ पड़ना तो और भी स्वाभाविक है। उस भक्ति-स्रोत के उमड़ पड़ने पर ...उसका गुणगान नमस्कार और प्रार्थना आदि कर उसके प्रेम के दिव्य प्रवाह में प्रवाहित हो जाना कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं। ...उसके पवित्र गुणों की स्मृति हमारे मलीन हृदय को दोषों और पापों से रहित कर पवित्र कर देती है। जिस प्रकार सूर्य के दूर और वीतराग रहते हुए भी हज़ारों मील दूर रहनेवाले कमल उसकी