Book Title: Jain Dharm Sar Sandesh
Author(s): Kashinath Upadhyay
Publisher: Radhaswami Satsang Byas

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Page 316
________________ 315 अन्तर्मुखी साधना ध्यान का स्थान एकान्त तथा शान्त होना चाहिए। ध्यान-काल में मौन रखना आवश्यक है। ध्यान के लिए किसी प्रकार का विशेष स्थान, विशेष काल व विशेष आसन हो, यह आवश्यक नहीं है। जो काल व स्थान अशान्ति का कारण नहीं हो, वही काल व स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है। जिस आसन से स्थिरता व सखपूर्वक बैठे रह सकें. उसी आसन से बैठ जायें। रीढ की हड्डी सीधी रखें, आँखें मूंद लें। 106 अज्ञानवश झूठे विषय-सुख की खोज में बाहर भटकनेवाले मन को ध्यान द्वारा ही अन्दर में मोड़ा जाता है। अज्ञान और दःख से जीव को मक्त करने का ध्यान ही एकमात्र कारगर साधन है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जैन धर्म में ध्यान को एक व्यापक अर्थ में लिया जाता है जिसमें ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर इसकी पूर्ण परिपक्व अवस्था तक की सभी अवस्थाएँ शामिल हैं। प्रारम्भ में जब तक एकाग्रता और स्थिरता की कमी रहती है तब तक ध्यानी को ध्यान के लाभ का अनुभव नहीं होता। पर जब धीरे-धीरे अन्तर में एकाग्रता आती जाती है तब अन्तर का अँधेरा दूर होने लगता है और आन्तरिक दिव्य प्रकाश और दिव्यध्वनि के अनुभव से ध्यानी को ध्यान का आनन्दमय रस प्राप्त होने लगता है। ध्यान द्वारा कर्मों की कालिमा हटती है, अन्धकार दूर होता है, प्रकाश प्रकट होता है, विषयों की भूख मिटती है, चित्त में शान्ति और साम्यभाव का उदय होता है, सभी पारमार्थिक गुण और शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं, सभी अभिलाषाएँ पूरी हो जाती हैं, आत्मा परमात्मा से अभेद होकर परमात्मा बन जाती है और उसे सदा के लिए मोक्ष के अनन्त सुख की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार ध्यान द्वारा उन सभी पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है जो मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य हैं और ध्यानी का मनुष्य-जीवनसार्थक हो जाता है। ज्ञानार्णव में ध्यान द्वारा प्राप्त होनेवाले फलों का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है: अहो देखो, यह आत्मा अनन्तवीर्यवान् (अनन्त शक्ति से युक्त) है तथा समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करनेवाली है तथा ध्यान शक्ति के प्रभाव

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