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जैन धर्म : सार सन्देश
आधार होती है । निरक्षरी भाषा सहज और अकृत्रिम है; उसे सीखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पर अक्षरी भाषा कृत्रिम है, उसे सीखने की ज़रूरत पड़ती है ।
वास्तव में अन्तर से उठनेवाली दिव्यध्वनि अन्तरात्मा की आवाज़ या परमात्मा की पुकार है जो हमें अन्दर बुला रही है और हमें अन्दर का मार्ग दिखला रही है। बाहरी सांसारिक विषयों में उलझे हमारे ध्यान को यह दिव्यध्वनि अन्दर में मोड़ती है, विषय-वासनाओं के विष-तुल्य रसों से हटाकर हमें अपना अमृत रस पिलाती है और अन्त में हमारे वास्तविक परमात्मारूप को प्रकट कर देती है जिससे हम एक अपूर्व आन्तरिक आनन्द में मग्न हो जाते हैं।
दिव्यध्वनि की आवाज़ सहज और स्वाभाविक होने के कारण सभी मुनष्यों लिए एक ही होती है 19 जबकि देश - काल की भिन्नता पर निर्भर करनेवाली कृत्रिम या वर्णात्मक भाषा अनेक प्रकार की होती है । पर जैसा कि जैन ग्रन्थों में स्पष्ट किया गया है, यह एकरूप निरक्षरी दिव्यध्वनि न केवल निरक्षर गूढ़ आन्तरिक अनुभवों की अभिव्यक्ति करती है, बल्कि यह सभी भाषाओं या वर्णात्मक शब्दों में दिये गये उपदेशों का भी मूल स्रोत है । इस तथ्य को जैन ग्रन्थों में अनेक उपमाओं द्वारा समझाया गया है । उदाहरण के लिए, आदिपुराण में कहा गया है:
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यद्यपि वह दिव्यध्वनि एक प्रकार की थी, फिर भी भगवान् (महावीर ) के महात्म्य से वह समस्त मनुष्यों की भाषारूप हो रही थी, अर्थात् सर्वभाषारूप परिणमन कर रही थी और लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्त्व का बोध करा रही थी । जिस प्रकार एक ही प्रकार की जलधारा वृक्षों के भेद से अनेक रसवाली हो जाती है उसी प्रकार सर्वज्ञदेव की वह दिव्यध्वनि भी पात्रों के भेद से अनेक प्रकार की हो जाती थी । अथवा जिस प्रकार स्फटिक मणि एक ही प्रकार की होती है, फिर भी उसके पास जिस-जिस रंग के पदार्थ रख दिये जाते हैं वह अपनी स्वच्छता (निर्मलता) से अपने-आप उन-उन पदार्थों के रंगों को धारण कर लेती है, उसी प्रकार सर्वज्ञ भगवान् की दिव्यध्वनि भी एक प्रकार की होते हुए श्रोताओं के भेद से अनेक रूप धारण कर लेती है | 20