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दिव्यध्वनि
221 दिव्यध्वनि का अनुभव प्रदान करे। अनन्त ज्ञान रूप परमात्मा का अनुभव प्राप्त करने का ऐसा ही प्राकृतिक नियम है। __इसी भाव को व्यक्त करते हुए छान्दोग्योपनिषद् में सत्यकाम जाबाल अपने को शिष्य रूप में स्वीकार किये जाने के लिए गुरु गौतम से विनयपूर्वक कहता है:
मैंने आप जैसे महात्माओं से सुना है कि केवल गुरु से जानी गयी विद्या ही परमपद को प्राप्त करा सकती है।16
मुण्डकोपनिषद् में भी स्पष्ट कहा गया है: जिज्ञासु को परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा और विनय के साथ वेदों के रहस्य को जाननेवाले और परमात्मा में स्थित किसी गुरु की शरण में ही जाना चाहिए।"
इस सम्बन्ध में यह शंका उठायी जाती है कि हम तो किसी तीर्थंकर या गुरु के वचनों या वर्णात्मक शब्दों द्वारा दिये गये उपदेशों को ही अपने मन द्वारा समझते हैं। तब फिर मन और वचन से परे की अवस्था को प्राप्त किये हुए तीर्थंकरों या सतगुरु की निरक्षरी वाणी या दिव्यध्वनि से कोई गणधर या शिष्य किसी प्रकार का ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकता है? इसका समाधान करते हुए धवला पुस्तक 18 में कहा गया है कि ऐसी शंका उचित नहीं है, क्योंकि अनुभव या सच्चा ज्ञान आत्मा का गुण है, मन का नहीं। इसलिए एक निर्मल आत्मा का ज्ञान दूसरी निर्मल आत्मा किसी प्रकार का वचन बोले बिना भी ग्रहण कर सकती है। वास्तव में सच्चे ज्ञान या अलौकिक आध्यात्मिक अनुभव को किसी भी वर्णात्मक शब्द या वचन द्वारा व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। इस प्रकार तीर्थंकर या सच्चे गुरु के लिए अपनी निरक्षरी दिव्यवाणी द्वारा किसी गणधर या सुयोग्य शिष्य को अलौकिक दिव्यध्वनि सुनाना और उसे गूढ अनुभव प्रदान करना कोई असंगत बात नहीं है। . सच पूछे तो निरक्षरी भाषा ही सहज या स्वाभाविक भाषा है और मनुष्य जब तक बोलना नहीं सीखता तब तक निरक्षरी भाषा ही उसकी अभिव्यक्ति का