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जैन धर्म: सार सन्देश
उस परमात्मा में मन लगावै तब उसके ही गुणों में लीन चित्त होकर उसमें ही चित्त को प्रवेश करके उसी भाव से भावित योगी मुनि उसीकी तन्मयता को प्राप्त होता है। जब अभ्यास के वश से उस मुनि को उस सर्वज्ञ के स्वरूप से तन्मयता उत्पन्न होती है उस समय वह मुनि अपनी असर्वज्ञ आत्मा को सर्वज्ञ स्वरूप देखता है।"
इस प्रकार अरहन्त भगवान् या सच्चे सन्त सद्गुरु के ज्योतिर्मय स्वरूप का वर्णन कर तथा उनके ध्यान द्वारा ध्यानी के उनसे एकाकार होने का फल बतलाकर शुभचन्द्राचार्य अपने अन्तिम निष्कर्ष के रूप में फिर कहते हैं:
हे मुने, तू वीतराग देवका ही ध्यान कर। कैसे हैं वीतराग भगवान् ? तीनों लोकों के जीवों के आनन्द के कारण हैं, संसाररूप समुद्र के पार होने के लिए जहाज तुल्य हैं तथा पवित्र अर्थात् सभी मल से रहित हैं तथा लोक अलोक के प्रकाश करने के लिए दीपक के समान हैं और प्रकाशमान तथा निर्मल ऐसे हैं कि करोड़ शरद के चंद्रमा की प्रभासे भी अधिक प्रभा के धारक हैं। वे जगत् के अद्वितीय नाथ हैं, शिवस्वरूप (कल्याणरूप) हैं, अजन्मा और पापरहित हैं। ऐसे वीतराग भगवान् का तू ध्यान कर।
सर्वविभवजुत जान, जे ध्यानै अरहंत कू।
मन वसि करि सति मान, ते पावै तिस भावकू॥8 अर्थात् जो अपने मन को वश में कर अरहंत भगवान् को सभी ऐश्वर्यों से युक्त
और सच्चा मानकर उनका ध्यान करता है, वह उन्हीं की अवस्था (भाव) को प्राप्त करता है।
इस प्रकार जीवित परम चेतन अर्हत् या सन्त सद्गुरु, जो स्वंय मुक्त होकर मुक्ति की युक्ति बतलाते हैं, के ध्यान से ध्यानी उन्हीं के समान मुक्त बन जाता है। ___ रूपस्थ ध्यान में अपने को पूरी तरह दृढ़ कर लेने के बाद ध्याता (ध्यान करनेवाला) अपने को रूप-रंग आदि चिह्नों से रहित अमूर्त परमात्मा के ध्यान में लगाता है। इसे ही रूपातीत ध्यान कहते हैं। इस ध्यान के फलस्वरूप ध्याता