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जैन धर्म: सार सन्देश
जब तक मोह नहीं छूटा तब तक अशान्ति है। यदि वह छूट जावे तो आज शान्ति मिल जाये।
जिसने मोह पर विजय पायी वही सच्चा विजयी है, उसी की डगमगाती जर्जर जीवन-नैया संसार-सागर पार होने के सन्मुख है।
कल्याण का कारण अन्तरङ्ग की निर्मलता है न कि घर छोड़ना और मौन ले लेना।
यदि गृह छोड़ने से शान्ति मिले तब तो गृह छोड़ना सर्वथा उचित है। यदि इसके विपरीत आकलता का सामना करना पड़े तब गृहत्याग से क्या लाभ?
जिनकी आत्मा अभिप्राय (आन्तरिक भाव) से निर्मल हो गयी है वह व्यापारादि कार्य करते हुए भी अकर्ता है और जिनकी आत्मा अभिप्राय से मलीन है वह बाह्य में दिगम्बर होकर कार्य न करते हुए भी कर्ता है।
कषाय (क्रोध, मान, माया, मोह आदि) के अस्तित्व में चाहे निर्जन वन में रहो, चाहे पेरिस जैसे शहर में रहो, सर्वत्र ही आपत्ति है। यही कारण है कि मोही दिगम्बर भी मोक्षमार्ग से पराङ्मुख (विमुख) है और निर्मोही (मोहरहित) गृहस्थ मोक्षमार्ग के सम्मुख है।
इस सम्बन्ध में हुकमचन्द भारिल्ल ने कुन्द कुन्दाचार्य के अष्टपाहुड़ ग्रन्थ के विचारों का उल्लेख इन शब्दों में किया है:
कुन्दकुन्दाचार्य ने बाह्य में नग्न-दिगम्बर होने पर भी जो अन्तर में मोह-राग-द्वेष से युक्त हों, उनमें भी गुरुत्व का निषेध करते हुए सावधान किया है। वे लिखते हैं:
द्रव्य से (वस्तुतः) बाह्य में तो सभी प्राणी नग्न होते हैं। नारकी जीव और तिर्यञ्च जीव तो निरन्तर वस्त्रादि से रहित नग्न ही रहते हैं।
मनुष्यादि भी कारण पाकर नग्न होते देखे जाते हैं तो भी वे सब परिणामों से अशुद्ध हैं, अत: भावश्रमणपने (साधुत्व-भाव) को प्राप्त नहीं होते हैं।