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जैन धर्म : सार सन्देश ____ अपनी आत्मा की पहचान करने और उसमें लीन होने के इस धर्म का पालन जाति, वर्ग, सम्प्रदाय आदि का भेद किये बिना सभी मनुष्य समान रूप से कर सकते हैं, जैसा कि योगसार योगेन्दुदेव ग्रन्थ में स्पष्ट कहा गया है:
गृहस्थ हो या मुनि हो, जो कोई भी निज आत्मा में बास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धिसुख को पाता है, ऐसा जिन भगवान् ने कहा है।43
आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना जैनाचार्यों के अनुसार धर्म का सर्वमान्य और सर्वोत्तम लक्षण है। इसे सर्वोत्तम मानने का कारण यह है कि इसे प्राप्त करना ही धर्म का वास्तविक लक्ष्य है और धर्म के अन्य सभी लक्षण इसमें अपने-आप समा जाते हैं, जैसा कि परमात्मप्रकाश टीका में स्पष्ट किया गया है:
यहाँ धर्म शब्द से निश्चय से जीव के शुद्ध परिणाम ग्रहण करने चाहिए। उसमें ही नयविभागरूप से वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सर्व धर्म अन्तर्भूत हो जाते हैं। वह ऐसे है - (1) अहिंसा लक्षण धर्म है सो जीव के शुद्धभाव के बिना सम्भव नहीं। (2) सांगार अनगार (गृहस्थ-मुनि) लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। (3) उत्तमक्षमादि दश प्रकार के लक्षणवाला धर्म भी जीव के शुद्धभाव की अपेक्षा करता है। (4) रत्नत्रय लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। (5) रागद्वेष-मोह के अभावरूप लक्षणवाला धर्म भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही बताता है और (6) वस्तुस्वभाव लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है।44
धर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टियों से गहराई से विचार कर इसके अनेक लक्षणों सहित उक्त सर्वोत्तम लक्षण को बताते हुए भी जैनाचार्य यह नहीं भूलते कि सर्व-साधारण को अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में धर्म-अधर्म की पहचान आसानी से कर सकने के लिए उन्हें धर्म के एक अत्यन्त सरल और व्यावहारिक लक्षण की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से वे धर्म का एक बहुत ही सरल पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और कारगर लक्षण बताते हैं। वे कहते हैं: