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जैन धर्म का स्वरूप मुक्त महापुरुषों के उपदेशों को अपना आधार मानता है। इन मुक्त महापुरुषों के उपदेश स्वभावतः एकरूप होते हैं। किसी एक व्यक्ति के उपदेश से बँधे न होने के कारण जैन धर्म में कट्टरता, हठधर्मिता और रूढ़िवादिता आने की सम्भावना स्वभावतः कम हो जाती है और इसकी दृष्टि सहज रूप से उदार बन जाती है। - अहिंसा को परम धर्म मानना जैन धर्म की चौथी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। यह जैन धर्म की उदारता का प्रमुख आधार है। अहिंसा का संक्षिप्त अर्थ है किसी भी प्राणी को किसी भी तरह मन, वचन और कर्म से कष्ट न पहुँचाना। अहिंसा की यह प्रमुखता जैन धर्म को साम्प्रदायिक घृणा और द्वेष से दूर रखकर परस्पर सद्भाव और प्रेम की ओर प्रेरित करती है।
जैन धर्म के विद्वानों ने बार-बार जैन धर्म की उदार दृष्टि की ओर हमारा ध्यान दिलाया है। उदाहरण के लिए, नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
जैन धर्म किसी व्यक्ति, वर्ग, सम्प्रदाय या जाति का धर्म न होकर प्राणी मात्र के हितों की रक्षा करने व उसके जीवन को शांतिपूर्वक व्यतीत करवाकर उन्नति की ओर ले जाता हुआ उसे परमात्मपद प्रदान करने का दावा रखता है।
जैन धर्म को 'सच्चा धर्म' कहते हुए वे उसे सामाजिक विषमता और द्वेष का नाशक तथा समता और प्रेम का प्रचारक बताते हैं । वे अपने विचार को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं:
सच्चा धर्म वह है जो प्राणियों को संसार के दुःखों से छुड़ाकर सच्चा सुख और शांति प्रदान करे, एवं विषमता, पारस्परिक द्वेष व पाखंड का नाश कर समता तथा प्रेम का प्रचारक हो, और आत्मा को कर्म कलंक से पवित्र कर परमात्मा बना देने का सामर्थ्य रखता हो। इसके विपरीत कोई भी धर्म वास्तविक धर्म नहीं कहला सकता।
कुछ लोग धर्म के ठेकेदार बनकर धर्मात्मा होने का अहंकार करते हैं और किसी धर्म विशेष में ममत्व की भावना रखकर, अर्थात् उसे निजी धर्म