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जैन धर्म का स्वरूप
___53 धर्म का मुख्य चिह्न यह है कि जो जो क्रियाएँ अपने को अनिष्ट (बुरी) लगती हों, सो सो अन्य के लिए मन-वचन-काय से स्वप्न में भी नहीं
करनी चाहिएँ।45 जैन-परम्परा के अनुसार धर्म को ही संसार की सबसे उत्तम वस्तु माना जाता है। इस सम्बन्ध में ज्ञानार्णव ग्रन्थ में कहा गया है:
धर्म, कष्ट के आने पर समस्त जगत् के त्रस-स्थावर (चर-अचर) जीवों की रक्षा करता है और सुखरूपी अमृत के प्रवाहों से समस्त जगत् को तृप्त करता है। ___ नरकरूपी अन्धकूप में स्वयं गिरते हुए जीवों को धर्म ही अपने सामर्थ्य से, मानो हाथ का सहारा देकर, बचाता है।
धर्म परलोक में जीव के साथ जाता है, उसकी रक्षा करता है, निश्चित रूप से उसका हित करता है तथा उसे संसाररूपी कीचड़ से निकालकर निर्मल मोक्षमार्ग में स्थापित करता है।
धर्म गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बान्धव है, हितू है, और धर्म ही बिना कारण अनाथों की प्रीतिपूर्वक रक्षा करनेवाला है। इसलिए प्राणी को धर्म के अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है।46 इसीलिए गणेशप्रसाद जी वर्णी ने कहा है: धर्म से उत्तम वस्तु संसार में नहीं। धर्म में ही वह शक्ति है कि संसार बन्धन से छुड़ाकर जीवों को सुख-स्थान में पहुँचा दे।47 ऐसे धर्म को ग्रहण करने में हमें भूलकर भी विलम्ब नहीं करना चाहिए और इसे शीघ्रातिशीघ्र अपनाकर अपने उद्धार के कार्य में लग जाना चाहिए, तभी हम अपने जीवन को सफल बना सकेंगे। इसलिए कुरल काव्य हमें अविलम्ब धर्मकार्य में लगने के लिए इन शब्दों में प्रेरित करता है:
यह मत सोचो कि मैं धीरे-धीरे धर्म मार्ग का अवलम्बन करूँगा। किन्तु अभी बिना विलम्ब किये ही शुभ कर्म करना प्रारम्भ कर दो, क्योंकि धर्म ही वह अमर मित्र है, जो मृत्यु के समय तुम्हारा साथ देनेवाला है।48