Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ 1 नयवाद की पृष्ठभूमि (1) नय - परिचय जैनदर्शन में वस्तु-स्वरूप के परिज्ञान के लिए प्रमाण के साथ नय का भी प्रतिपादन किया गया है। नय यद्यपि प्रमाण का अंश है तथापि जैनेतर दर्शन - शास्त्रों में प्रमाण का जैसा महत्त्व है वैसा ही महत्त्व जैनदर्शन में नय का है । वस्तुतः नय जैनदर्शन की अपनी एक विशिष्ट और व्यापक विचार पद्धति है। जैनदर्शन प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण नय से करता है। अनेकान्त तथा स्याद्वाद सिद्धान्त का विवेचन भी नय के द्वारा किया जाता है। जैनदर्शन में अनेकान्त दृष्टि के निर्वाह एवं विस्तार के लिए तथा उसके विविध प्रकार से उपयोग के लिए स्याद्वाद, नयवाद (सापेक्षवाद), सप्तभंगी सिद्धान्त आदि विविध रूपों का निरूपण किया गया है। ये स्याद्वाद, नयवाद आदि विविध रूप अनेकान्तवाद के ही तो फलितार्थ हैं । स्याद्वाद जिन विभिन्न दृष्टिकोणों का अभिव्यंजन है, वे दृष्टिकोण जैनपरिभाषा में नय के नाम से अभिहित होते हैं। नय का सामान्य अर्थ है, 'ज्ञाता का अभिप्राय' । ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष नय है, जो प्रमाण के द्वारा जाने गये वस्तु के एकदेश को स्पर्श करता है। भेदाभेदात्मक, नित्यानित्यात्मक, उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य रूप सामान्य- विशेषात्मक पदार्थ अखण्ड रूप से प्रमाण का विषय होता है। उसके किसी एक धर्म को मुख्य तथा इतर धर्मों को गौण रूप से विषय करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता . है। जब वही अभिप्राय इतर धर्मों को गौण न करके उनका निरसन या निराकरण करने लगता है तब वह दुर्नय कहलाता है। तात्पर्य यह है कि प्रमाण में अनेक धर्मवाली पूर्ण वस्तु विषय होती है, नय में एक धर्म मुख्य रूप से विषय होकर भी इतर धर्मों के प्रति गौणता रहती है। इस प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तु के विभिन्न धर्मों का समन्वय करने के लिए नयवाद की उपयोगिता सिद्ध होती है । Jain Education International सैद्धान्तिक दृष्टि से नयवाद की जितनी उपयोगिता है उतनी ही उपयोगिता व्यावहारिक दृष्टि से भी है। वस्तु - स्वरूप का विवेचन करते समय नय की अपेक्षा नयवाद की पृष्ठभूमि :: 13 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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