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काल-विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
भाषा का प्रयोग होता था। यहां हमने अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी के विवाद में अधिक न जाकर हिन्दी के विकास में अपभ्रंश और देशी भाषा के महत्त्व को विशेष रूप से स्वीकार किया है। और इसलिए आदिकाल की सीमा को लगभग सप्तम शती से १४ वीं शती तक स्थापित करने का दुस्साहस किया है। इस काल के साहित्य में भाषा और प्रवृत्तियों का वैविध्य दिखाई देता है। धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर, नीतिकाव्य आदि जैसी प्रवृत्तियां उल्लेखनीय हैं। चरित, कथा, रासा आदि उपलब्ध साहित्य इन्हीं प्रवृत्तियों के अन्तर्गत आ जाता है। धार्मिक और लौकिक दोनों प्रवृत्तियों का भी यहां समन्वय देखा जा सकता है। इन सभी प्रवृत्तियों को एक शब्द में समाहित करने के लिए ‘आदिकाल' जैसे निष्पक्ष शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त लगता है। डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन ने इसे अपभ्रंश काल कहकर उसका मूल्यांकन किया है । '
इसे चाहे अपभ्रंश काल कहा जाय या चारणकाल या संधिकाल, पर इतना निश्चित है कि इस काल में अपभ्रंश का परिनिष्ठित रूप साहित्यिक हो गया था और उसका देशज रूप पुरानी हिन्दी को स्थापित करने लगा था। अपभ्रंश के साथ ही पुरानी हिन्दी का रूप स्वयंभू, हेमचन्द्र जैसे आचार्यों के ग्रन्थों में भलीभांति प्रतिबिम्बित हुआ है। इसलिए इसका नाम अपभ्रंश की अपेक्षा आदिकाल अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस नामकरण को तो स्वीकृत किया है पर वे काल-सीमा को स्वीकार नहीं कर सके । नामकरण के पीछे प्रवृत्ति, जाति, भाषा, व्यक्ति, संप्रदाय, विशिष्ट रचना शैली, प्राचीनता - अर्वाचीनता,