Book Title: Hem Sangoshthi
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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६८ की योनि या शौरसेनी की ? शौरसेनी भाषा को मागधी और पैशाची की योनि मानना अथवा 'प्राकृतवत्, शौरसेनीवत्, प्राग्वत्, महाराष्ट्रीवत् और संस्कृतात् अवगन्तव्यः' इन सभी शब्दों का अर्थ यही है कि किसी एक भाषा को समझाने के लिए दूसरी भाषा का आधार लिया गया है न कि उसमें से अन्य भाषा की उत्पत्ति हुई है । इसे हम सुविधा, स्पष्टता और सरलता से समझाने का एक तरीका माने या उत्पत्ति का स्रोत माने यह शिष्ट संस्कृत भाषा के विद्वानों के लिए विचारणीय है। अर्धमागधी में से ळकार व्यंजन अदृश्य
हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण (पी. एल. वैद्य का संस्करण, १९२८) में किसी न किसी प्रकार बचा हुआ ळकार का प्रयोग एक स्थल पर मिल रहा हैं। सूत्र नं. 8.1.7 की वृत्तिमें सामान्य प्राकृत का एक पद्यांश इस प्रकार उद्धृत किया गया है -
'उवमासु अपज्जत्तेभ - कळभ - दन्तावहासमूरुजुअं' पैशाची भाषामें तो 'लो ळ:' 8.4.308 का एक सूत्र ही दिया गया है परंतु अन्य प्राकृतों के लिए (चूलिका पैशाची के सिवाय) इस व्यंजन के प्रयोग का उल्लेख नहीं हैं।
वेदों की छान्दस् भाषा और पालि भाषा में इसका प्रयोग मिलता है। आजकल की मराठी और गुजराती भाषा में इसका प्रचलन है। पालि और अर्धमागधी एक ही क्षेत्र और एक ही काल की भाषाएँ होते हुए भी अर्धमागधी में इस व्यंजन का प्रयोग क्यों नहीं ?
पिशल महोदयने अपने प्राकृत व्याकरण (240) में जिस आधार-सामग्री का उपयोग किया है उनमें विविध प्राकृत भाषाओं के साथ साथ अर्धमागधी भाषा में से भी ळकार वाले अनेक प्रयोग उद्धृत किये हैं। उनके अनुसार आगम-ग्रंथो में प्रयुक्त कुछ शब्द इस प्रकार हैं -
एळय, किळ्ळा , गरुळ, गुळ, तळाव, तळाग, दाळिम, पीळण, पीळा, इत्यादि इत्यादि ।
वररुचि और हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरणोंमें से भी ऐसे शब्द पिशल महोदयने उद्वत किये है। परन्तु आधुनिक संस्करणों में इस ळकार का प्रयोग नहीं मिलता है ।
पिशल के द्वारा हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण से उद्धृत शब्द :- दाळिम, गरुळ, आमेळ । Jain Education International
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