________________
७७ __इस चर्चा का निष्कर्ष यह है कि अर्द्धमागधी भाषा पूर्वी भारत की भाषा थी और पूर्वी भारत के अशोक के शिलालेखों और पालि भाषा में भी नकार का प्रयोग यथावत् रहा है अत: अर्द्धमागधी में भी यथावत् रहना चाहिए था परंतु प्राकृत व्याकरण के प्रभाव के कारण तथा बदलती हुई लोकभाषा के प्रभाव में आकर नकार का शनैः शनैः णकार में परिवर्तन होता गया है ।
इस चर्चा के संदर्भ में अर्धमागधी आगमग्रंथों के एक नये संस्करण की आवश्यकता अभी भी बनी हुई है जिसकी भाषा का स्वरूप प्राचीन हो जो भ. महावीर के काल से मेल खाता हो, न कि क्षमाश्रमण देवधिगणि के समय के अनुकूल हो । इन दोनों के बीच एक हजार वर्ष का अन्तर रहा है और इस लम्बी अवधि में मूल अर्धमागधी में परिवर्तन आते रहे हैं । इसके बावजूद हस्तप्रतों में अभी भी भाषा की प्राचीनता संबंधी सामग्री यत्र-तत्र विद्यमान है। आवश्यकता है किसी भाषाविद् संपादक मुनिश्री की । आशा है कि कालान्तर में कोई न कोई विद्वान् इस कार्य के लिए आगे आएगा । संबोधनका एक लुप्त प्राचीन (अर्ध) मागधी प्रयोग ‘आउसन्ते'
आचार्य श्री हेमचन्द्र के व्याकरण में अव्यय ननु = णं समझाते (8.4.283) . हुए वृत्ति में कहा गया है 'आर्षे वाक्यालंकारेऽपि दृश्यते', उदाहरण - 'नमोत्थु णं'।
उत्तराध्ययन में एक 'ण' और सम्बोधन के लिए 'भंते' का प्रयोग है (मजैवि. 29.1105 इत्यादि). 'धम्मसद्धाए णं भन्ते' ।
सामायिक सूत्र में भी संबोधन के लिए 'भंते' का प्रयोग है - 'करेमि भंते सामाइयं'
इनमें संबोधन का शब्द 'भन्ते' और अव्यय 'णं' ध्यान में रखने योग्य हैं।
आचारांग के उपोद्घात में और अन्य जगह तथा अन्य आगम ग्रंथो में एक प्रयोग है -
_ 'सुयं मे आउसं तेणं' ('सुतं मे आउसंते णं') भगवया (भगवता) एवमक्खायं (तं)। ___ 'आउसं तेणं' और 'आउसंतेणं' दोनों ही वैकल्पिक प्रयोग हैं ऐसा चूर्णिकार और वृत्तिकार द्वारा समझाया गया है ।
'तेणं भगवया' में 'तेणं' भगवान महावीर का विशेषण बन जाता है। 'आउसंतेणं'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org