Book Title: Hem Sangoshthi
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 102
________________ मूल अर्धमागधी भाषामें दन्त्यनकार के लिए नकार का प्रयोग ही उपयुक्त हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरणमें प्रारंभिक नकार के लिए नियम है - वादौ (8.1.229) वृत्ति - 'नस्य णो वा भवति' अर्थात् विकल्प से ण कार भी होता है । यह एक परंपरागत नियम हो ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि उनके ही प्राकृत व्याकरण में प्रारंभिक तीन पादों में विविध नियम समझाते समय जो जो उदाहरण प्रस्तुत किये गये है उनमें प्रारंभिक नकार यथावत् रूप में आठ बार और ण कार में बदला हुआ एक बार ही मिलता है अर्थात् न और ण का अनुपात 8 : 1 का है। उसी व्याकरण में मध्यवर्ती नकार का णकार में परिवर्तन होना (8.1.228) बताया गया है और साथ ही साथ वृत्तिमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि आर्ष (अर्थात् अर्धमागधी) भाषा में मध्यवर्ती नकार के प्रयोग भी मिलते हैं, जैसेआरनालं, अनिलो, अनलो इत्यादि । दूसरी तरफ व्याकरणकार श्री वररुचि के प्राकृत-प्रकाश के अनुसार नकार का सर्वत्र णकार (आदि और मध्य में) (सूत्र 2.42) होता है । प्राकृत-प्रकाश का यह नियम प्राचीन और उत्तरवर्ती प्राकृत शिलालेखों की भाषा पर इस रूप में लागू ही नहीं होता है। शिलालेखों की भाषा के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि नकार को णकार में बदलने की प्रवृत्ति मूलतः दक्षिण भारत की रही है और ई. सन् के पश्चात् यह प्रवृत्ति अन्य क्षेत्रों में फैली है। ई. स. पूर्व के पूर्वी भारत के शिलालेखों में तो उलटा णकार का नकार मिलता है और नकार अपने यथावत् रूप में है । अर्धमागधी आगमग्रंथों की रचना का स्थल भी पूर्वी भारत का मगध देश ही रहा है यह ध्यान में रखने का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। पैशाची भाषामें तो णकार का नकार हो जाता है परंतु इसके सिवाय शौरसेनी और मागधी भाषा में हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में उद्धृत शब्दों में प्रारंभिक, मध्यवर्ती एवं संयुक्त व्यंजनों में कुछ नकार वाले प्रयोग मिलते हैं। शौरसेनी भाषा में नकार के उदाहरण (अध्याय 8.4) (अ) प्रारंभिक : - निच्चिन्दो 261, नाऽयं 270, नियविधिणो 282, नेदि 273, 274 (ब) माध्यमिक : () विभक्ति :- पदिजेन, मारुदिना 260 (ii) संयुक्त :- संपन्ना 285, अन्नं 277 (न, न्य = त्र) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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