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में यह सुधर्मा स्वामी का विशेषण बन जाता है, इसका अर्थ किया गया है 'आवसता' पर्युपासना करते हुए, भगवान के पास में रहते हुए । संदर्भ को देखते हुए ये दोनों ही इस प्रकार के प्रयोग उपयुक्त नहीं लगते हैं, खींच-तानकर इनके अर्थ समझाये गये हैं और हस्तप्रतों की लेखन शैली की विशिष्टता के कारण इस प्रकार के शब्द- . विच्छेद हो गये हो ऐसा प्रतीत होता है ।
प्राचीन अर्धमागधी ग्रंथों में संबोधन के लिए 'आयुष्मत्' शब्द के लिए अन्य प्रयोग ‘आउसो' और 'आउसन्तो' मिलते हैं जो शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत के रूप हैं । ये दोनों ही प्रयोग एकवचन या बहुवचन दोनों के लिए प्रयुक्त हुए हैं । उदाहरणार्थ - भिक्षु द्वारा गृहपति के लिए 'आउसंतो'
आचा. सूत्र 445 (मजैवि. संस्करण) महिलाओं द्वारा भिक्षु के लिए 'आउसो'
. सूत्रकृ. सूत्र 198, 207 (मजैवि. संस्करण) भगवान महावीर के लिए निर्गन्थ और निर्गन्थियों द्वारा 'समणाउसो'
सूत्रकृ. सूत्र 644 भगवान महावीर द्वारा उदक पेढालपुत्र के लिए 'आउसंतो'
सूत्रकृ. सूत्र 867 परंतु संबोधन के लिए जहाँ पर भी 'आउसं' शब्द का प्रयोग है वहाँ पर उसके साथ 'तेणं' शब्द अवश्य मिलता है । इस संबंध में सूत्रकृ. चूर्णि का एक पाठ विचारणीय है । सूत्रकृतांग में उसके एक पद्यांश (मजैवि. 2.6.51) 'अहाउसो विप्परियासमेव' के बदले में चूर्णिकार द्वारा 'अधाउसे विप्परियासमेव' उद्धृत किया गया है । चूर्णिकार आगे समझाते हैं 'आउसे' त्ति 'आयुष्मन्तः' (सूत्रकृ. पृ. 232, पाटि. 4)। भाषिक दृष्टि से चूर्णिका पाठ प्राचीन है जो मागधी और अर्धमागधी भाषा के साथ सर्वथा अनुकूल है ।
जिस प्रकार 'आउसो' का अर्धमागधी में 'आउसे' होगा उसी प्रकार 'आउसन्तो' का 'आउसन्ते' क्यों नहीं ?
संबोधन के लिए जिस प्रकार 'भन्ते' शब्द है उसी प्रकार 'आउसन्ते' माना जाना चाहिए और ‘णं' को अव्यय माना जाना चाहिए ।
हस्तप्रतों में उनकी अपनी लेखन शैली के अनुसार वाक्य इस प्रकार लिखा • हुआ मिलता है -
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