Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya Author(s): Anekantlatashreeji Publisher: Raj Rajendra Prakashan TrsutPage 11
________________ ममाशीर्वचनम् इस विश्व प्रांगण में जिन शासन सदा जयवंत रहा है। जिसमें प्राणीमात्र के हित एवं कल्याण की उदात्त भावना की प्रधानता है। उसी के साथ जिनवाणी अपनी वैजयन्ति से अनादि से विश्व व्यापित्व से समृद्ध रही है। उस वाणी के प्रवक्ता चरम तीर्थपति परम पद प्रतिष्ठाता श्रमण भगवंत महावीर का प्रवचन सापेक्षवाद से सन्नद्ध एवं समृद्ध रहा है। उसकी अपनी दिव्यता से दिप्तीवंत, प्रवाह से प्रपूरित प्रवचन गंगा ने अनेक आत्माओं को निर्मलतम स्थिति से संपन्न करने का असाधारण प्रयास किया है। महावीर की वाणी आत्मा की अपनी योग्यता अनुसार ही उसे प्रकाशमान करती रही है। अनन्तज्ञानमयी वाणी में अलौकिक शक्ति के दर्शन होते हैं। ऐसे अनेकानेक आत्माओं में आचार्य श्रीमद् हरिभद्र सूरि अपने आप में ज्योतिर्मय नक्षत्र बनकर जैनाकाश में प्रकाशमान हुए हैं। मेवाड़ देशीय चित्तौड़ नगर के विद्वान पंडितवर्य विप्रवर श्री हरिभद्र अपनी प्रतिज्ञा के सम्पूर्ण निर्वाहक थे। जिसकी बात मैं समझ न सकू उसका शिष्य बन जाऊंगा। दिग्विजयी विद्वान होते हुए भी एक जैन श्रमणी याकिनी महत्तरा के शब्दों ने उनकी अपनी अपूर्णता का भान कराया। वस्तु स्वरूप को समझने की जिज्ञासा के कारण पंडित प्रवर ने जैन धर्म में दीक्षित होकर अपनी प्रज्ञा को अत्यधिक विकसित किया और दर्शन शास्त्र के उद्भट विद्वान बने / योग ग्रन्थों के निर्माता के रूप में उन्होंने जिनवाणी को और विराट स्थिति में जन साधारण तक पहुंचाने एवं समझाने में सफलता प्राप्त की। योग निष्ठ प्रज्ञापुरुष के रूप में उनका चिन्तन विभिन्न विषयों जैसे धर्म, योग, ज्योतिष, शिल्प, क्रिया, विधान, व्याकरण, छंद, काव्य, अलंकार में प्रवाहित हुआ जो अपने आप में उनकी भव्य जीवन चिन्तन में दक्ष स्थिति का आज भी दर्शन करा रहा है। उनका दार्शनिक वैशिष्ट्य दृष्टव्य एवं उनकी अद्भुतता का दर्शन करा रहा है। हमारी समुदायवर्तिनी शान्त स्वभावी, सरलमूर्ति साध्वीजी कोमललता श्रीजी की सुशिष्या प्रतिभा सम्पन्न साध्वीजी श्री अनेकान्तलता श्रीजी ने आचार्य हरिभद्र एवं उनके दार्शनिक वैशिष्ट्य पर यह शोध प्रबंध लिखकर निश्चित ही उन पुनीत आत्मा के प्रति अपनी भावांजलि को प्रस्तुत करने के साथ जिनवाणी की संस्तवना का अनुपम कार्य किया है / दार्शनिक स्वरूप को ज्ञात करके उसे प्रस्तुत करने का यह दुःसाध्य कार्य किया है। में श्रमणीवर्या के अध्ययन, स्वाध्याय एवं वैशिष्ट्य चिन्तन का अभिनन्दन करता हूँ एवं अन्तर से आशीर्वचन प्रदान कर प्रसन्नता का अनुभव करता हूं। शुभम्। गुन्टूर, -आचार्य जयन्तसेन सूरि दि. 15-7-2008 /IAPage Navigation
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