Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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त्याग का विधान भी इसी प्रसंग में है। इस अवलोकन से स्पष्ट है कि जैन धर्म की अहिंसा मात्र धार्मिक न होकर व्यवहारिक भी है। अहिंसा की उपलब्धियाँ :
जैन साहित्य व धर्म में अहिंसा के विविध रूपों के साथ एक बात भी देखने को मिलती है कि अहिंसा का मूल स्रोत खान-पान की शुद्धि की ओर अधिक प्रभावित हुआ है। हिंसा से बचने के लिए खान-पान मे संयम रखने को अधिक प्रेरित किया गया है उतना राग, द्वेष, काम, क्रोध, (जो भावहिंसा के रूपान्तर हैं) के विषय में नहीं। इसके मूल में शायद यही भावना रही हो कि यदि व्यक्ति का आचार-व्यवहार स्वच्छ और संयत होगा तो उसकी आत्मा एवं भावना पवित्र रहेगी। किन्तु ऐसा हुआ बहुत कम मात्रा में है। आज अहिंसा के पूजारियों जैनों के खान-पान में जितनी शुद्धि दिखाई देती है, मन में उतनी पवित्रता और व्यवहार में वैसी अहिंसा के दर्शन नहीं होते। अत: यदि व्यक्ति का अन्तर पवित्र हो, सरल हो तो उसके व्यवहार व खान-पान में पवित्रता स्वयं अपने-आप आ जायेगी। जिसका अन्तर प्रकाशित हो, उसके बाहर अंधेरा टिकेगा कैसे? ___अहिंसा के अतिचारों में जो पशुओं के छेदन और ताड़न की बात कही गई है वह नया तथ्य उपस्थित करती है। वह यह कि, जैनाचार्यों का हृदय मूक पशुओं की वेदना से अधिक अनुप्राणित था। यदि ऐसा न होता तो वे
अहिंसा के अतिचारों में खान-पान की त्रुटियों को गिना देते। जबकि उन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण की बात कही हैं यही भावना आगे चल कर वैदिक यज्ञों की हिंसा का डटकर विरोध करती है। प्राणीमात्र को अभय प्रदान करती है। जैन संस्कृति के वरिष्ठ विद्यायकों के उद्घोष किया- यदि सचमुच, तुम निर्भय रहना चाहते हो, तो दूसरों को तुम भी अभय देने वाले बनो, निर्भय बनाओ। इस अनित्य नश्वर संसार में चार दिन की जिन्दगी पाकर क्यों हिंसा में डूबे हो? यह उसी का प्रतिफल है कि वैदिक युग के क्रियाकाण्डों और आज के हिन्दू धर्म अनुष्ठानों में जमीन आसमान का अन्तर आ गया है। भारतीय
જ્ઞાનધારા
૨૧છે.
(જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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