Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre

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Page 257
________________ तत्त्व हैं। इसके कारण सामाजिक जीवनमें विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता निम्नता के में मूल यही कारण है। वर्तमान समय में अति विकसित और समृद्ध राष्ट्रों में जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है साम्राज्यवृद्धि की वृत्ति है, उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहंकी पुष्टिका प्रयत्न है। स्वतंत्रता के उपहार का प्रश्न इसी स्थितिमें होता है। जब व्यक्ति के मनमें आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना उद्बुद्ध होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है, उसे अपने प्रभावमें रखनेका प्रयास करता है। जैन और बौद्ध दोनों दर्शनोने अहंकार, मान, ममत्व के प्रहाण का उपदेश दिया है, जिसमें सामाजिक परतंत्रताका लोप भी निहित है । और अहिंसा का सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन भी एक प्रकारकी हिंसा है । अत: अहिंसा का सिद्धान्त स्वतंत्रता के सिद्धान्त के साथ जुड़ा हुआ है। जैन एवं बौद्ध दर्शन एक ओर अहिंसा - सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पूर्ण समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर समता के आधार पर वर्गभेद, जातिभेद एवं ऊँच-नीचकी भावना को समाप्त करते हैं । शांतिमय समाज की स्थापना के लिये व्यक्ति का नीतिधर्म से प्रेरित अहिंसापूर्ण आचार ही महत्त्व का परिबल है । अहिंसक समाजकी रचना के लिये अहिंसा केवल एक आदर्श या भाव न रह कर, आचारमें परिणत होनी चाहिये । वह कैसे ? જ્ઞાનધારા - आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । इस पंक्ति में अहिंसक समाजकी नींव है। और 'परोपकार : पुण्याय पापाय परपीडनम्।' कहकर उस भावनाको नीतिशास्त्र द्वारा दृढतर बनाया है । प्रतिशोधकी जो भावना है, वैर से वैरका बदला लेने की जो वृत्ति है, इससे कितना आतंक फैलता है, इसका हम खुद आज अनुभव कर रहे हैं। हम टी.वी.में देखते हैं कि कितने मासुम बच्चों अपने मातापिताके साथ अपना प्यारा वतन और बचपन भी छोड़कर कहीं अनजान स्थलों पर जा रहे हैं। कितना आतंक है उनके मन में, वे बड़े होकर क्या बनेंगे ? आतंकवादी જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨ Jain Education International ૨૩૮ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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